''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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साधो यह हिजडों का गाँव-12

>> Tuesday, November 10, 2009

 व्यंग्य-पद
 (३७)
 मत थूको भाई सूरज पर.
खुद का ही मुंह गन्दा होगा, लोग हँसेंगे देखो तुम पर.
कुछ न कर पाए चुप बैठो, सर्जक को पूजो जीवन भर.
आत्मग्लानि से भर जाओगे, रहेगा तुमको दुःख भी अकसर.
बौनों की है बात निराली, कद वालों को कोसें जम कर.
मरे हुए को भी गरियाते, पाप रखेंगे कितना सर पर..?
काम है केवल निंदा करना, कैसे जीते है ये ईश्वर..?
धन्य-धन्य नाकारी पीढी, जीती है जो निंदा कर कर.
निंदक को तुम हाथ जोड़ लो,  ध्यान न देना होगा बेहतर..
(३८)
निंदक-शैली बड़ी निराली.
सुबह -शाम करते है निंदा,  करतूते है जिनकी काली.
खुद तो काम नहीं कुछ करते, कर्मवीर को देते गाली.
गांधी हो या होय विनोबा, सब इनकी नज़रों में जाली.
खुद का जीवन दो कौडी का, गंधाती है जैसे नाली.
शूकर जैसा जीवन देखो, लेकिन समझे खुद को आली.
कुछ तो जीवन उत्तम कर लो, फिर देना दुनिया को गाली.
जीवन कट दिया बस यूं ही, मर गए इक दिन खाली-खाली.
जीवन मतलब कर्म हो ऊंचे, मगर यहाँ तो है बदहाली.
बेचारे हैं दुःख में काले, क्यों सबके होठों पर लाली.
(39)
काम है उनका....कान भरना.
खुद की तरफ तीन उंगली है, लेकिन सब को उंगली करना. 
यही एक धंधा है उनका, यानी बस रोजाना मरना.
बड़े भक्त होते है ऐसे, लेकिन ईश्वर से क्या डरना.
ऐसा है वो, ऐसा है ये,  तरह-तरह की खबरे गढ़ना.
खा-पी कर वो मर जायेंगे, जीवन है पशुओं-सा चरना. (क्रमशः)

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