साधो यह हिजडों का गाँव-12
>> Tuesday, November 10, 2009
व्यंग्य-पद
(३७)
मत थूको भाई सूरज पर.खुद का ही मुंह गन्दा होगा, लोग हँसेंगे देखो तुम पर.
कुछ न कर पाए चुप बैठो, सर्जक को पूजो जीवन भर.
आत्मग्लानि से भर जाओगे, रहेगा तुमको दुःख भी अकसर.
बौनों की है बात निराली, कद वालों को कोसें जम कर.
मरे हुए को भी गरियाते, पाप रखेंगे कितना सर पर..?
काम है केवल निंदा करना, कैसे जीते है ये ईश्वर..?
धन्य-धन्य नाकारी पीढी, जीती है जो निंदा कर कर.
निंदक को तुम हाथ जोड़ लो, ध्यान न देना होगा बेहतर..
(३८)
निंदक-शैली बड़ी निराली. सुबह -शाम करते है निंदा, करतूते है जिनकी काली.
खुद तो काम नहीं कुछ करते, कर्मवीर को देते गाली.
गांधी हो या होय विनोबा, सब इनकी नज़रों में जाली.
खुद का जीवन दो कौडी का, गंधाती है जैसे नाली.
शूकर जैसा जीवन देखो, लेकिन समझे खुद को आली.
कुछ तो जीवन उत्तम कर लो, फिर देना दुनिया को गाली.
जीवन कट दिया बस यूं ही, मर गए इक दिन खाली-खाली.
जीवन मतलब कर्म हो ऊंचे, मगर यहाँ तो है बदहाली.
बेचारे हैं दुःख में काले, क्यों सबके होठों पर लाली.
(39)
काम है उनका....कान भरना.खुद की तरफ तीन उंगली है, लेकिन सब को उंगली करना.
यही एक धंधा है उनका, यानी बस रोजाना मरना.
बड़े भक्त होते है ऐसे, लेकिन ईश्वर से क्या डरना.
ऐसा है वो, ऐसा है ये, तरह-तरह की खबरे गढ़ना.
खा-पी कर वो मर जायेंगे, जीवन है पशुओं-सा चरना. (क्रमशः)
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