''सद्भावना दर्पण'

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साधो यह हिजडों का गाँव-१३

>> Thursday, November 12, 2009

व्यंग्य-पद... 
साधो यह हिजडों का गाँव-१३ 

(39)
राजनीति है अब परधान।
हर कोई दिखता है उस रस्ते, क्या साधु औ क्या शैतान।
दास बना देती है सबको, टुकड़ों-सा मिलता अनुदान।
लपक रहे हैं कूकुर जैसे, जिनके पास नहीं सम्मान।
खु़द्दारी पर हँसती दुनिया, अजब-गजब है वे इंसान।
दूर रहे जो राजनीति से, वह बेचारा ही नादान। 

शैतानो का ही जलवा है, फिर भी मेरा देश महान...?  
आओ मधु कौडा बन जाओ, दस-दस पीढी हो धनवान.

(40)
लो अब चुनरी दूर हो गई।
बची हुई थी थोड़ी अस्मत, वह भी अब काफूर हो गई।
जि़स्म दिखा कर नारी समझे, वह ज़न्नत की हूर हो गई?
जो जितनी है खुली-खुली-सी, वह उतनी मशहूर हो गई। 

                                                                                   (देखें बालीवुड को..)
स्वर्ण-कलश-सी आभा अब तो, देखो चकनाचूर हो गई।

                                        (यानी पारम्परिक भारतीय नारी)
नैतिकता अब पिछड़ी बातें, नारी सहसा क्रूर हो गई।
नयी सभ्यता अब फोडे से, बढ़ कर के नासूर हो गई।
(41)
अधिवक्ता को मिलती गाली।
पढ़ी किताबें व्यर्थ हो गईं, अब तो चलती रोज दलाली।
झठे को सच बतलाना ही , प्रतिभा की है बड़ी हमाली।
सच्चा मक्खी  मार रहा है, झूठे के चेहरे पर लाली।
बड़ी-बड़ी डिगरी है उसकी, देखो कहीं न निकले जाली ।
न्याय बेचारा रोता है, कदम-कदम पर किस्मत काली। 

वह वकील ही नंबर वन है, जिसकी है चांदी की थाली. 
ज्यादा बकता, मगर न थकता, सेठो जैसी फितर पाली. 

झूठा जीत गया मामला, शातिर की जब सोहबत पाली. 

2 टिप्पणियाँ:

रंजना November 12, 2009 at 11:42 AM  

Bada sateek vyangy kasa hai aapne...katu yatharth ko bade hi prabhavi dhang se aapne in rachnaon me ukera hai..

Bahut bahut bahut hi sundar rachnayen..

Udan Tashtari November 12, 2009 at 6:17 PM  

सटीक!

सुनिए गिरीश पंकज को

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