साधो यह हिजड़ों का गाँव-14
>> Tuesday, November 17, 2009
आओ सेवा-सेवा खेलें।
बिन मेहनत के करें कमाई, काहे दंड अरे हम पेलें।
फर्जी आयोजन हों सारे, केवल चित्र कहीं का ले लें।
जीवन की नैया को चलकर , नोटों की नदियाँ में ठेलें.
अनुदानों पर चलता जीवन, इधर-उधर क्यों पापड़ बेलें ।
काम-धाम का करें दिखावा, लोग-बाग झेलें तो झेलें।
जियो-जियों एनजीओ वालो, ज्ञान जरा कुछ तुमसे ले लें।
(43)
आँखें हैं पर अँधे हैं।
अनदेखी करने में माहिर, नेताओं के धंधे हैं।
हँसने-रोने की भी खातिर, अब मिल जाते बंदे हैं।
पेट बड़ा फूला-फूला है, भीतर सौ-सौ चंदे हैं।
सच्चे की जय करने वाले, कहलाते अब गंदे हैं।
सच का कौन लिवैया इनके, भाव बड़े ही मंदे हैं ।
ढोते हैं चमचे पालकी, सोलिड इनके कंधे हैं.
(44)
साधो अब हैं कहाँ कबीर।
उनके नाम पे रोटी खाते, बन गए देखो लोग अमीर।
नकली सिक्के दौड़ रहे बस, असली तो अब बने फकीर।
अपनों को ही पीर बाँटते, अजब-अनोखे हैं ये पीर।
नकली से बाज़ार पटा है, कैसी जनता की तकदीर।
भोग-विलास बना है दर्शन, चमचों की लटकी तस्वीर।
गाय खा रही पोलीथिन, कुत्ते लेकिन खाते खीर।
भगवे की है आड़ नोचते, साधू नैतिकता की चीर ।
झूठे खुल्ला घूम रहे है, सच के पैर बंधी जंजीर ।
1 टिप्पणियाँ:
bahut bindaas, bahut khoob.
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