''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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साधो यह हिजड़ों का गाँव-14

>> Tuesday, November 17, 2009



व्यंग्य-पद
(42)
आओ सेवा-सेवा खेलें।
बिन मेहनत के करें कमाई, काहे दंड अरे हम पेलें।
फर्जी आयोजन हों सारे, केवल चित्र कहीं का ले लें।

जीवन की नैया को चलकर , नोटों की नदियाँ में ठेलें.
अनुदानों पर चलता जीवन, इधर-उधर क्यों पापड़ बेलें ।
काम-धाम का करें दिखावा, लोग-बाग झेलें तो झेलें।
जियो-जियों एनजीओ वालो, ज्ञान जरा कुछ तुमसे ले लें।

(43)
आँखें हैं पर अँधे हैं।
अनदेखी करने में माहिर, नेताओं के धंधे हैं।
हँसने-रोने की भी खातिर, अब मिल जाते बंदे हैं।
पेट बड़ा फूला-फूला है, भीतर सौ-सौ चंदे हैं।
सच्चे की जय करने वाले, कहलाते अब गंदे हैं।
सच का कौन लिवैया इनके, भाव बड़े ही मंदे हैं । 

ढोते हैं चमचे पालकी, सोलिड इनके कंधे हैं.
(44)
साधो अब हैं कहाँ कबीर।
उनके नाम पे रोटी खाते, बन गए देखो लोग अमीर।
नकली सिक्के दौड़ रहे बस, असली तो अब बने फकीर।

अपनों को ही पीर बाँटते, अजब-अनोखे हैं ये पीर
नकली से बाज़ार पटा है, कैसी जनता की तकदीर।
भोग-विलास बना है दर्शन, चमचों की लटकी तस्वीर।

गाय खा रही पोलीथिन, कुत्ते लेकिन खाते खीर
भगवे की है आड़ नोचते, साधू नैतिकता की चीर
झूठे खुल्ला घूम रहे है, सच के पैर बंधी जंजीर । 

1 टिप्पणियाँ:

Yogesh Verma Swapn November 18, 2009 at 6:19 AM  

bahut bindaas, bahut khoob.

सुनिए गिरीश पंकज को

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