''सद्भावना दर्पण'

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साधो यह हिजड़ों का गाँव-15

>> Thursday, November 19, 2009


व्यंग्य-पद
(45)
धरम-करम अब तो धंधा है।

इस धंधे के आगे भैया, हर धंधा लगता मंदा है.
मालामाल यहाँ पर दिखता, भगवे में जो भी बंदा है।
सारे पाप यहाँ पर होते, हर दूजा चेहरा गंदा है।
सच कह दो तो चिढ़ जाते हैं, गले में पड़ जाता फंदा है ।
वही सफल है इस दुनिया में, आँख है लेकिन जो अंधा है।
इनका लक्ष्य नहीं है ईश्वर, इनका तो मकसद चंदा है ।

इनकी मंजिल ऐश-वैश है, मूरख भक्तों का कन्धा है.
(46)
मिठलबरे हैं नेता सारे।

(मिठलबरा छत्तीसगढ़ी भाषा का शब्द है. इसका अर्थ है ऐसा आदमी जो मीठा-मीठा बोले लेकिन भीतर से बड़ा शातिर हो)
मिठलबरे हैं नेता सारे।
बैठ गए हैं मंचों पर अब, कैसे कोई इनको टारे।
केवल घर भरने की चिंता, लोग फिर रहे मारे-मारे।
थोड़ा-सा चंदा बस दे दो, लूटो-नोचो कौन विचारे।
लोकतंत्र अब बाँझ सरीखा, यहाँ न होते चाँद-सितारे।

इन्हीं के आँगन मटक रहे है, दिन-रात नैना कजरारे
तन पर खादी पहन घूमते, गाँधी जी के ये हत्यारे।

झांसे में आ जाती जनता, वोटर हो जाते बेचारे.
राजनीति इनकी रोजी है, बाकी काम तो ना रे-ना रे. 
दौलत की गंगा बह जाती, सज्जन नेता इनसे हारे.
(47)
साधो जोड़-तोड़ है भारी।

शातिर तो अब बड़े मज़े में, सज्जन के हिस्से लाचारी 
सबको सुविधाओं की चाहत, क्या है नर अरु क्या है नारी।
बिक जाए तन-मन भी चाहे, मिल जाए बस दौलत सारी।
प्रतिभा कम है तिकड़म ज्यादा, नए दौर की है बीमारी।
अच्छे हो तो घर पर बैठो, बाहर हैं केवल व्यापारी।
कैसे कोई पकड़ा जाए, चोर-पुलिस में जब हो यारी ।

जिसे चाहिए माल मुफ्त में, वो पट्ठा बनता दरबारी
गलत लोग ही आज सही है, नए दौर की है बलिहारी 
देखूं जब कुर्सी की पूजा, सीने पर चलाती है आरी.
झूठ ठहाके लगा रहा है, नैतिकता खामोश बेचारी. 
धक्का दे कर निकलो आगे, मची हुई है मारामारी । 

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