साधो यह हिजड़ों का गाँव-16
>> Sunday, November 22, 2009
व्यंग्य-पद/ क्रमश...
साधो यह हिजड़ों का गाँव-16
(49)
माधव हम परिणाम निराशा.जिसको हम समझे थे अपना, वही दे गया हमको झांसा.
शातिर लोगों ने ही अकसर, यहाँ सज्जनों को है फांसा.
राजनीति के अंगने में अब, कला नाचती बन रक्काशा.
शील-शर्म वाली नारी थी, अब दिखता सब खुला-खुला-सा.
खुद का खून भी धोखा दे तो, करे आदमी किनसे आशा.
वही पूज्य है जिसके हिस्से, दौलत या धन अच्छा-खासा.
पद पाया, मुस्कान खो गयी? हिस्से आयी निर्मम भाषा.
ज्ञान और पूंजी है फिर भी, नहीं बाँटते इन्हें जरा-सा.
माधव हम परिणाम निराशा.
(50)
साधो अब सज्जन बेचारा.अपना हक पाने की खातिर, फिरता है वो मारा-मारा.
शैतानी ताकत के आगे, हरदम सीधा-सादा हारा.
गुंडों का अब राज हो गया, उनकी ही दिखती पौ बारा.
सच बोलो तो मारे जाओ, कैसे जीयें जीवन सारा.
उन्हें आईना मत दिखलाना, दुर्जन का चढ़ जाता पारा.
नंगापन स्वीकार हो गया, बही आजकल कैसी धारा.
नैतिकता सम्मानित हो अब, गूंजे गली-गली यह नारा.
(51)
साधो अब या कैसी नारी?जो जितनी बेशर्म आधुनिक, मर्यादावाली बेचारी?
कपड़ों से तन ढंक जाता था, बदन दिखाना अब लाचारी.
चूल्हा-चौका भाड़ में जाये, इस सोच की है बलिहारी.
घर है सच्चा स्वर्ग न समझे, नासमझी से दुनिया हारी.
देह कोई हथियार हो जैसे, औरत अब तो बनी शिकारी.
ज्ञान बढाओ, आगे आओ, पर मर्यादा रक्खो सारी.
वैश्य बनो, वेश्या मत बनना, वरना मिलती है बस गारी.
माँ हो कर उसकी मुक्ति है, लेकिन बोले रहूँ कुंवारी.
कहाँ खो गयी सीता, दुर्गा, गायत्री जैसी सन्नारी?
साधो अब या कैसी नारी?
3 टिप्पणियाँ:
पढ़ रहा हूँ गिरीश भाई ।
साधो-साधो!!
bahut khub
bhagyodayorganic.blogspot.com
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