''सद्भावना दर्पण'

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मुकेश अम्बानी की नहीं, यह संपत्ति जनता की है...

>> Saturday, November 21, 2009

सवक्तव्य-व्यंग्य-गीत
मुकेश अम्बानी की नहीं, यह संपत्ति जनता की है... 
मुकेश अम्बानी भारत के नंबर वन धनपति है. उनका घर करोडो का है. कई मंजिला है. वहां हेलीपेड भी है. बड़े गर्व से बताया जा रहा है यह सब कुछ. कोई पूछे तो जरा, कि यह संपत्ति आयी कहाँ से...? यह संपत्ति जनता की है. अम्बानी का घर जनता का घर है. यह बात अम्बानी को भी पता होगी. हर पूंजीपति का घर दरअसल जनता का ही है, उनके शेयरों का पैसा है.  इसी पैसे से उनका साम्राज्य बना. शेयरों. से बना है, या अधिकाधिक  मुनाफे से. इसलिए जनता के शेयरों से खड़े वैभव को किसी की निजी संपत्ति के रूप में प्रचारित करना अजीब लगता है. लेकिन अब तो पैसे का ही बोलबाला है इसलिए मीडिया भी उसी के पीछे भागता है. बहुत पहले मैंने-तीस साल पहले-दो शेर कहे थे, वे याद आ रहे हैं-
टाटा, बिड़ला, डालमिया,
नोच देश की खाल मिया.
घर भर ले जनता के भरोसे,
बना हमें कंगाल मिया..
लेकिन हम अब समझ रहे है,
तेरी तो हर चल मिया.
यह अपरिपक्व दौर की एक रचना है, जो अचानक याद आ गयी,. तब लिखना शुरू ही किया था. लेकिन आज इसे देखता हूँ तो लगता है, कि उस वक्त कही गयी मेरी  बात गलत नहीं थी. स्थिति तो आज भी वही है. पैसे वाले और पैसे वाले बनाते जा रहे हैं और गरीब और गरीब होता जा रहा है. झुग्गीवालों को शहर से हटाया जा रहा है और पैसे वाले अपने रहने के लिए सात मंजिला महल बना रहे है...? यह है मेरे भारत की ताज़ा तस्वीर..गरीब के हिस्से केवल महगाई है, आंसू है. फ्रस्ट्रेशन है. तनाव है. घाव ही घाव है. औए नेता, अफसर, व्यापार ऐश कर रहे है. इनकी जुगलबंदी देखने लायक है. सत्ता में बैठा हर नेता मधु कौडा बनना चाहता है और विपक्ष इनको बेदखल कर के सत्ता पर काबिज़ होना चाहता है, ताकि वह भी मधु कौडा बन सके. जनता केवल तमाशा देख रही है. अमीरों के तमाशे.बहरहाल, धन वालों के महिमा-मंडन को देखने के बाद एक गीत बन रहा है, वह पेश है-
पूंजीवादी निर्ममता का/ प्रतिदिन यहाँ प्रकोप हो रहा.

इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.
जाने क्या होगा अब आगे, कितनी आयेगी बदहाली.


फुटपाथों पर लोग सो रहे,
भुख्मर्री का आलम है. 
किसको बोले ठीक करो सब,
हाकिम अपना जालम है.
हक़ मांगो तो हमको मिलती,
लाठी, गोली या फिर गाली. 
इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.

गांधी का वह स्वप्न कहाँ है,
जिसने रामराज देखा था.
पूंजी नंगा नाच करेगी,
किसने कभी यहाँ सोचा था.
बस उधार का सारा वैभव,
भीतर झांको है कंगाली.
इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.

नेता, अफसर लूट रहे है,
व्यापारी क्यों होगा पीछे.
ये सारे आकाश छू रहे,
जनता तो बस नीचे-नीचे.
जिसने गुलशन को महकाया, 
रोता बैठा है वह माली.
इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.

समता-ममता का भारत से,
धीरे-धीरे लोप हो रहा.
पूंजीवादी निर्ममता का,
प्रतिदिन यहाँ प्रकोप हो रहा.
व्यंजन से भरपूर कभी थी,
लेकिन अब है सूखी थाली. 
इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.

उठो-उठो रे प्यारी जनता,
अपने हक को अब पहचानो.
अपनी ही सारी गलती है,
मानो चाहे तुम मत मानो.
मिल कर नूतन देश गढ़े हम,
सबके हिस्से हो खुशहाली. 

इधर है अपनी पाकिट खाली, उधर मगर होठों पर लाली.
जाने क्या होगा अब आगे, कितनी आयेगी बदहाली ?

1 टिप्पणियाँ:

Yogesh Verma Swapn November 21, 2009 at 6:19 PM  

girish ji bahut bindaas likhte ho , bahut badhia.

सुनिए गिरीश पंकज को

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