साधो यह हिजडों का गाँव -८
>> Tuesday, November 3, 2009
व्यंग्य-पद
(क्रमशः )
(23)
बचपन में हो गए सयाने।
बात न सुनते मात-पिता की, काम करें बच्चे मनमाने।
बनना था पर बिगड़ रहे हैं, नेट पे नंगई, फूहड़ गाने।
ऊटपटांग कपड़ों को पहने, बने हुए पागल-दीवाने।
अपनी बुद्धि से ना चलते, जैसा फैशन, वैसा ठाने।
आदर भूल गए बूढ़ों का, कैसी नस्ल है ईश्वर जाने ।
(24)
वरदी में दिखते अपराधी।
रक्षक ही भक्षक बन बैठे, वादी ही लगता प्रतिवादी।
ऐसा है गठजोड़ अनोखा, इधर है वरदी, उधर है खादी।
लूटपाट करते खाकी में, क्या इसको कहते आज़ादी।
हद है सब खामोश देखते, हिजड़ों जैसी है आबादी।
न्याय के ठेकेदार बन गए, फरजी मुठभेड़ों के आदी।
(25)
वो है आज बड़ा धनवान।
दिन में लूटे, रात लुटाए, गज़ब का उसका बना विधान।
अभिनंदन का खर्चा उसका, रोज खरीदे वो सम्मान।
भूखे को रोटी ना देता, कुरसी को बस करता दान।
कहे लूट को मेहनत अपनी, भली करेंगे बस भगवान।
पाप करे पूजा से काटे, बड़ा अनोखा उसका ज्ञान।
(26)
अफसर मतलब बड़ा लबारी।
काम-काज ना करता केवल, बस फाइल से झूठी यारी।
मंत्री जी का चम्मच ससुरा, जनता को देता है गारी।
बुद्धू रोज बनाओ सबको, घूमो-फिरो ऐश कर भारी।
ज्यादातर अफसर मिलते हैं, नंगे, लुच्चे औ व्यभिचारी।
बात कहूँ मैं खरी-खरी बस, हमको काहे की लाचारी। (क्रमशः )
4 टिप्पणियाँ:
साधुवाद आपको पंकज जी इस कालजयी अद्भुत रचना के लिए...शब्द शब्द सत्य है...वाह...
नीरज
तार्किक व्यंग्य
wah sir ji kya udhedi hai bakhiya ...lage rho achchha hai...
wah girish ji, bindaas bol.
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