साधो यह हिजडों का गाँव-९
>> Wednesday, November 4, 2009
व्यंग्य-पद...
कबीर केवल एक बार ही पैदा होता है. उसका कोई विकल्प नही, लेकिन कबीर ने जो राह दिखाई, रचनात्मकता को जो तेवर दिए, उस परम्परा को आगे बढ़ने वाले तो सामने आ ही सकते है. ठीक है, कि ये सारे प्रयास कबीर की चरण-धूलि ही है, लेकिन व्यंग्य में बात होनी चाहिए. समाज में प्रह्सनगीरी कब तक चलेगी? सच बोलने वाले भी तो हो. चुटकुले सुनाने वाले तो खैर अपना काम ठीक कर रहे है, क्योंकि वे समय के साथ चल रहे है. हम उन्हें चालाक या तठास्थ आदमी भी कह सकते है, लेकिन जीवन का सच भी तो कोई पेश करे. भले ही अब बाजारवाद के निर्मम, आत्मकेंद्रित और निपट चालू किस्म दौर में इसका कोई अर्थ रहा नहीं.लेकिन ऐसे प्रयास होने चाहिए. साहित्य...सच्चा साहित्य तो यही है. कबीरने बताया था कि साहित्य क्या कर सकता है. वे अब नहीं है, लेकिन छह सौ साल बाद भी उनके दोहे, उनके पद हमें याद दिलाते है कि एक बेहतर समाज के लिए क्या किया जा सकता है. उस दिशा में हमारा लेखन कुछ तो आगे बढे. व्य्यंग्य-पदों को पढ़ कर सज्जन तो खुश होते हैं, लेकिन दुर्जन दुखी होते है, उनका खून खौलता है, कि लो, ये साला भी, हमें उपदेश दे रहा है हमें...? इसे तो एक दिन निपटा दिया जायेगा. इसका बहिष्कार करो, इसका कहीं नाम मत लो. इसे गुमनाम रखो. ये..ये खतरनाक है. साहित्य के लिए, समाज के लिए. हम ऐसी कवितायेँ लिखते है, जो किसी के पल्ले नहीं पड़ती इसीलिए हम बड़े है, लेकिन ये...ये तो दो टूक कह रहा है, छंद में भी बात करता है. अब छंद .? हुह ..बैकवर्ड है ससुरा . साहित्य की मुख्यधारा से कटा है. साहित्य कहाँ जा रहा है, और ये कहाँ जा रहा है? व्यंग्य कहने वाले की, छंद में कहने वाले की अनेक तरह से उपेक्षाएं होती रहती है. फिर भी ये अच्छी बात है कि साहस के साथ गंभीर लेखक सक्रिय रहते है, ऐसे ही लोगों के कारण साहित्य अपनी परिभाषा में खरा उतरता है. मै ऐसे ही साहसी लोगों का हौसला बढ़ाने की कोशिश करता रहता हूँ. इसी का विनम्र परिणाम है ये मेरे व्यंग्य-पद. कुछ दिनों तक ये अभियान जारी रहेगा. सुधी पाठक -चाहें तो - अपने-अपने ब्लागों में भी इस प्रयास का जिक्र कर सकते है, ताकि दूसरे लोग भी पढ़ सकें . वैसे अच्छे लोग तो पढ़ भी रहे है, अपनी प्रतिक्रियाएं भी दे रहे है, इससे मेरा हौसला बढ़ रहा है. प्रतिक्रियाएं संबल बनती हैं. बहरहाल, प्रस्तुत है चार पद और.... (गतांक से आगे...)
(27)
ये समाजसेवी हैं पक्के।
साथ में उनके मँडराते हैं, अफसर, झूठे, चोर-उचक्के।
मकसद है फोटो छप जाए, रह जाएँ सब हक्के-बक्के।
कुछ पाने की खातिर प्यारे, देते हैं अपनों को धक्के।
लूट-खसोट में सबसे आगे, जीम रहे हैं देखो छक के।
बड़ी सफेदी है कपडों में, मगर दाग देखो तुम रुक के ।
कब मरवा देंगे सज्जन को, मत रहना तुम इनसे लग के।
(28)
गुरू नहीं, ये गुरु-घंटाल।
नोंच रहे चेले समते जो, पावन शिक्षा की बस खाल।
ट्यूशन इनका लक्ष्य हो गया, नोट कमाने का है ख्य़ाल।
गुरु का पद कु-पद बन गया, माँ शारद को बड़ा मलाल।
श्रेष्ठ ग्रंथ ही गुरु सम लगते, यही बनाएंगे खुशहाल।
गुरू की महिमा घटती जाती, किसको फुरसत देखे हाल।
(29)
बड़े गज़ब के ये अखबार।
भीतर काले काम करें पर, बाहर उजला कारोबार?
पैसों की माया है अद्भुत, छिप जाता सारा व्यभिचार।
क्रीतदास संपादक सारे, लिख न पाएँ मन का सार।
मालिक ही अब संपादक है, असली करे दलाली चार।
वेश्याएं ज्यादा अच्छी है, मेरे अनुभव का है सार ।
हिंसा, नंगई और सनसनी, यही है इनका अब व्यवहार।
जो जितना शातिर है उसका, उतना ऊँचा भाषण-मार ।
पद्मश्री तक पा जाते है, मालिक-संपादक कई बार ।
(30)
साधो यह नकली सम्मान।
इनकी माला, इनका चन्दन, खुद रुपया कर देते दान।
खलनायक ही नायक है अब, अज़ब दौर का गज़ब विधान ।
माँग-माँग कर पाते वैभव, बढ़-चढ़ अपना करें बखान।
इधर-उधर मुँह मार रहे हैं, कौन कहेगा इन्हें महान।
तलुए चाट रहे कुरसी के, हो जाए शायद कल्यान।
रहे अंधेरे में सम्मानी, मगर न चाहे रौशनदान।
लेकिन जो क्षणजीवी होते, भिखमंगई है परम निदान। (क्रमशः)
3 टिप्पणियाँ:
बिल्कुल सही लिखा है आपने।
ये पद वाकई पहली बार पढ़े हैं
ati sunder bindaas.
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