''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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साधो यह हिजडों का गाँव-१०

>> Thursday, November 5, 2009


व्यंग्य-पद
(३१)
कोठे-से लगते अख़बार.
मालिक इनका करे दलाली, बढ़ता जाता कारोबार.
छाप रहे गंदे विज्ञापन, बड़े बेशरम ये किरदार.
इनके घर की बहू-बेटियाँ, लगता नहीं है पानीदार.
कैसे भी आये बस पैसे, इज्ज़त-फिज्ज़त है बेकार.

लिंग्वर्धक विज्ञापन से, कितना कर लेंगे व्यापार?
विज्ञापन अश्लील बहुत हैं,  मगर छप रहे बारम्बार.
बात करेंगे ऊंची-ऊंची, मगर नीच इनका व्यवहार.
पाठक भी सोये रहते है, जारी है नीला व्यापार.
वेश्या भी शरमा जाये पर इनकी महिमा अपरम्पार.

कोठे-से लगते अख़बार...
  (3२)
भ्रष्टाचार पे काहे रोना.
इसे मिल गयी है मंजूरी, अब क्या पाना, अब क्या खोना?
जहां देशद्रोही हो ज्यादा, वहां तो बस ऐसा ही होना.
देशप्रेम को देश निकला,  गद्दारों को अब है ढोना.
नैतिकता रोती बेचारी, उसकी खातिर है इक कोना.
आज करोडो में जीता है,  कल का नेता औना-पौना.
खादी के कपड़ो के भीतर, देखो नकली रोना-धोना.
मरने से अब इसे बचाओ, देश मेरा प्यारा मृग-छौना.
महंगाई आकाश छू रही,  अचरज फिर भी  जिंदा होना.
दिल्ली मस्त रहे अपने में, लोकतंत्र अब लगता बौना.
भ्रष्टाचार पे काहे रोना.
(33)
ऐसा लोकतंत्र बेकार..
जहां लोक पर डंडे बरसे, तंत्र करे बस अत्याचार..
अफसर्र, नेता भाग्यविधाता, इनके आगे सब लाचार ?
रोगी मरता भीड़ में फंस कर, नेता की जाती है कार.
लोग मर गए बिना दवा के, ऐसे नेता को धिक्कार .
लोकतंत्र यह लगता नकली, लगती अंग्रेजी सरकार.
कब नेता इन्सान बनेंगे,  देश कर रहा इन्तेज़ार..
बड़े-बड़े बंगलो में मंत्री, अफसर भी इनका सरदार.
दोनों जीम रहे है भारत, मचा हुआ है हाहाकार.
आ जाओ भगवान बचाओ, जनता की हो गयी है हार..
राजघाट पर गाँधी रोते, आंसू बहते धारोधार...
ऐसा लोकतंत्र बेकार..(क्रमशः)
गिरीश पंकज

1 टिप्पणियाँ:

Amrendra Nath Tripathi November 5, 2009 at 10:27 AM  

achchi kavitai hai
shukriya...

सुनिए गिरीश पंकज को

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