लेख
>> Monday, November 9, 2009
इस बार कविता नहीं, केवल एक टिप्पणी..
स्त्रियों को कु-पाठ पढाने की घिनौनी कोशिश...
.प्रभाष जोशी जी के निधन पर मैंने एक लिखा जो, मोहल्ला लाइव में भी छपा. उस लेख में एक जगह मैंने जोशी जी द्वारा एक सती काण्ड की प्रशंसा के सन्दर्भ में यह लिखा था कि 'उन्होंने औरत की उस भावना की तारीफ की थी कि वह पति से कितना प्यार करती थी'. इसमे कोई बुराई नहीं. मैंने जोशी की इस बात का समर्थ करते हुए एक बात कही कि यह घटना ''उन महिलाओं के लिए एक सबक जैसी है, जो पति से गद्दारी करती हैं, या व्यभिचार करती घूमती रहती हैं।” इसमे भी मैंने कोई गलत बात नहीं कही. ऐसी बात लिखने के लिए एक लेखक ने प्रतिक्रिया दी कि मुझे शर्म आनी चाहिए क्योंकि यह स्त्री- विरोधी बात है. मित्रो, मै स्त्री-विरोधी नहीं हूँ, वरन उसकी दिशाहीनता का सख्त विरोधी हूँ. शर्म तो उन लोगों को आनी चाहिए, जिन्होंने समकालीन व्यभिचार, नगई, पतन, आदि तमाम नकारात्मक मूल्यों को हरी झंडी दे दी है, और स्त्रियों को कु-पाठ पढाने की घिनौनी कोशिश भी की है कि 'यही है आधुनिकता. देह की आजादी ही असली आजादी है. इसे जो लोग व्यभिचार बोलते है, वे पिछडे लोग है'.ये है मानसिकता. क्या यही है आधुनिकता..? साहित्य में भी यही सब चल रहा है, और जीवन में भी. इतने सालों से साहित्य और समाज में ये मंजर देख रहा हूँ, और अभी नहीं बहुत पहले से ही शर्मसार हूँ, कि कुछ लेखक समाज को कहाँ से कहाँ ले जाने पर तुले हैं. आदमी तो आदि कल से ही लम्पट रहा है, शातिर रहा है. पतित भी लेकिन औरते बची हुयी थी. अगर औरते भी आदमी बनाने पर तुल जायेगी तो वो मूल्य कहाँ जायेंगे, जिसके बल पर हम अपनी परंपरा-संस्कृति पर गर्व करते रहे है? यह सफाई देने की बात नहीं है कि मै प्रगतिशील सोच वाला हूँ लेकिन प्रगतिशीलता और व्यभिचार में अंतर है. प्रभाष जी वाले लेख में मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह लेख के सन्दर्भ को आगे बढ़ाने वाली बात है. मैंने लिखा है- ''उन महिलाओं के लिए जो पति से गद्दारी करती हैं, या व्यभिचार करती घूमती रहती हैं।” सबके लिए यह बात नहीं है. हो भी नहीं सकती, अच्छी औरते अभी भी बची हुई है, जो पति के साथ सती होना पसंद करती है, यह उनकी अपनी भावना है. सती प्रथा का मै समर्थक नहीं हूँ.हो भी नहीं सकता लेकिन मै उस भावना को नमन करता हूँ जो भावना औरत को बड़ा बनाती है. अगर पत्नी-वियोग में कभी कोई पति भी जान दे दे तो वह भावना भी प्रणम्य है.
एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमे क्या केवल कागजी बातें है...? सब मरे यह ज़रूरी नहीं लेकिन कुछ लोग ऐसे करते है तो उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए. किसी को चिता में जबरन बिठाने का कोई अग्यानी ही समर्थन करेगा. जोशी जी ने साथ-साथ जीने-मरने की उसी भावना का सम्मान किया था, जो अब लुप्त होती जा रही है. मै भी इस भावना का सम्मान करता हूँ. भविष्य में भी करता रहूँगा. शर्म तो उन नकली लोगो को आनी चाहिए जो समाज को-प्रगतिशील मूल्यों के नाम पर-दिशाहीन कर रहे है. औरतो को गलत पाठ पढ़ा रहे है. मै ऐसे लोगो के खिलाफ लिखता रहूँगा और शर्मिंदा होता रहूँगा कि समाज का सत्यानाश करने वाले भी जिंदा है. वे लोग अपने स्टार पर मुझे भी गरियाते रहेंगे कि 'ये पिछडा -गंवार कहाँ से आ गया, जो अनैतिकता के दौर में नैतिकता का कुपाठ पढा रहा है? छिः...इसे तो मध्य युग में होना था', लेकिन मै हूँ और अपनी मुहिम में लगा हुआ हूँ. स्त्री-शक्ति पर मेरी अनेक कवितायेँ है जो बताती है कि मेरी सोच क्या है, चिंतन क्या है. मेरा ब्लॉग देख ले, मेरी रचनाये देख ले, तो शायद दृष्टी खुल जाये, लेकिन ऐसे लोगो की दृष्टी कुछ ज्यादा ही खुल जाती है. बहरहाल, स्त्री के प्रति मेरा नजरिया क्या है, इसे समझाने के लिए अपनी ही ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ-
सुन्दर, कोमल कली लडकियां
होती अकसर भली लडकियां
कितना मीठा मन रखती हैं
ज्यों मिसरी की डली लडकियां
मत बंधो पैरो में बंधन
अन्तरिक्ष को चली लडकियां
लड़के जब नाकारा निकले
मान-बाप को फली लडकियां
गिरी हुयी दुनिया दिखलाती
ससुरालों में जली लडकियां
शर्म तो उन लोगों को आनी चाहिए जिन्होंने समकालीन व्यभिचार, नगई, पतन, आदि तमाम नकारात्मक मूल्यों को हरी झंडी दे दी है, और स्त्रियों को कु-पाठ पढाने की घिनौनी कोशिश भी की है कि 'यही है आधुनिकता. देह की आजादी ही असली आजादी है. इसे जो लोग व्यभिचार बोलते है, वे पिछडे लोग है'. ये है मानसिकता. साहित्य में भी यही सब चल रहा है, और जीवन में भी. इतने सालों से साहित्य और समाज में ये मंजर देख रहा हूँ, और अभी नहीं बहुत पहले से ही शर्मसार हूँ, कि कुछ लेखक समाज को कहाँ से कहाँ ले जाने पर तुले हैं. आदमी तो आदि कल से ही लम्पट रहा है, शातिर रहा है. पतित भी लेकिन औरते बची हुयी थी. अगर औरते भी आदमी बनाने पर तुल जायेगी तो वो मूल्य कहाँ जायेंगे, जिसके बल पर हम अपनी परंपरा-संस्कृति पर गर्व करते रहे है? मै अच्छी और बुरी औरतों के बारे में लिखता रहता हूँ, जैसे अच्छे-बुरे पुरुषों पर भी कलम चलता रहता हूँ. बीस-तीस साल पहले दिनकर जी की एक कविता कभी पढी थी, कि भूमि पर पैर टिकते नहीं तुम्हारे/ तुम उडी जा रही हो पवन की तरह/ भाईयो की तुमको न होगी कमी/ पर चलना तो सीखो बहन की तरह/ क्या यह कविता स्त्री-विरोधी है..? अच्छी बातों का स्वागत होना चाहिए, संकुचित नज़र से देखने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. हर लेखक का दायित्व है कि वह सच लिखे. जैसे कई लोग मुसलमानों की गलत बातों पर भी सिर्फ इसलिए चुप तरह जाते हैं कि लोग उन्हें सांम्प्रदायिक न करार दें
खैर, स्त्री -अस्मिता पर मै लिखता रहता हूँ. मेरी भावनाओ को वे न समझें तो न समझे. शर्मिन्दा वे लोग होते रहे जो पतन को उत्तर आधुनिकता समझ बैठे है, जो स्त्री के देह -स्वातंत्र्य को ही उसकी आधुनिकता का उत्स मान रहे है. उसे भड़का रहे है. प्रगति होती रहे, लेकिन मूल्य बने रहे, और यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए है. खैर, इस मुद्दे पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. फिलहाल इतना ही काफी है.
गिरीश पंकज
4 टिप्पणियाँ:
जो स्त्री के देह -स्वातंत्र्य को ही उसकी आधुनिकता का उत्स मान रहे है. उसे भड़का रहे है. प्रगति होती रहे, लेकिन मूल्य बने रहे, और यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए है.
आपने बहुत ही सही कहा, हम अपने मुल्यों को खो देंगे तो हम अपनी जड़ से ही च्युत हो जायेगे। आपके लेख का पुरजोर समर्थन है,सती प्रथा का नही।
यथार्थ लेखन। निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।
गिरीश जी!
वन्दे मातरम.
आज सही पता मिला तो सद्भावना दर्पण तक सद्भावना पहुँचा पा रहा हूँ. इसके पहले के सब प्रयास गलत पते के कारण असफल हो गए. अस्तु...
आपको एक सार्थक प्रयास हेतु शुभ कामनाएँ. यह एक साहित्यिक चिटठा मात्र नहीं है अपितु सामाजिक पहरुआ और सांकृतिक दूत भी है. साधुवाद...
एक सुझाव- यूनिकोड का टंकण औजार फ़ौरन से पेश्तर लगा लें...इससे अन्यत्र से कोपी-पेस्ट की जहमत बचेगी.
यह तो मेरा अपना चिटठा है. रचनाएँ लगातार देता रहूँगा...आप भी दिव्यनर्मदा पर निरंतर अपनी कलम का कलाम पहुँचायें यह अनुरोध है.
खड़ी हिंदी को जनवाणी और जगवाणी बनाने के लिए हमें मिलकर लगातार जूझना होगा. आंचलिक बोलियों को हिंदी का स्पर्धी बनाकर अंग्रेजी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का षड्यंत्र सफल न हो पाए...हमें भारत के बाहर हिंदी भाषियों की संख्या बढ़ाना है ताकि यह विश्व भाषा हो.
आपको महिला अधिकारों के रक्षक होने की सफाई क्यों और किसे देना है? महिलाओं का शोषण करने के लिए महिला विमर्श के नाम पर जो मूल्यहीनता को बढ़ाते हैं उन्हें हम सब जानते हैं. लैंगिक समय के नाम पर अपने घर की महिलाओं को चौका सम्हालने में व्यस्त रखना और अन्यों के घरों की महिलाओं को अपने आयोजनों में बुलाने का पाखंड अब छिपा नहीं है. साम्यवाद और नक्सलवाद में महिलाएं सनातन परिवार परंपरा की तुलना में अधिक शोषित हुई हैं और जमीन से कट भी गयी हैं. अस्तु आप अपनी ऊर्जा सफाई देने में जाया न करें केवल लेखन में लगायें ताकि हिंदी और मुझ जैसे हिंदी सिपाही अधिक से अधिक पा सकें.
sanjeev ji, aap jaise lekhako se jo hausala milata hai, usase raah aasan ho jatee hai.
Post a Comment