''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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साधो यह हिजड़ों का गाँव-18

>> Friday, December 4, 2009


व्यंग्य-पद
(55)
साधो सब अपने ही दुश्मन?
बन सकते है महात्मा पर कौन करे त्याग का दर्शन.
मुस्का कर के बड़े बनो तुम, लेकिन कटुतामय है जीवन.
दुखा रहे दिल ये अपनों का, कट जाते है इनसे स्वजन.
धन पा कर ये इतराते है, बेचारे...कितने है निर्धन.
दुआ नहीं दे सकते सबको, लगे नहीं जिसमे कौड़ी-धन?
धोखा देकर ऐश करो बस, बतलाओ लकड़ी को चन्दन.
अपनी-अपनी हाँक रहे बस, बडबोले बन जाते दुर्जन.
प्रेम, दुआ, सद्भाव बाँट कर, बन सकता है सुन्दर ये मन.
दान करो धन नहीं घटेगा,पर न करे कोई ये अर्पन.
सुखी वही जो पक्का झूठा, छल करना है अब तो फैशन.
गुन अपनाओ करो नदी में, हर दुर्गुण का फ़ौरन तरपन.

कितना सरल बड़ा होना पर लोग न चाहे आज बड़प्पन .
 (56)
सबसे ऊँची रिश्वत यारो।
जो कहता मैं कभी न लेता, उसके सच पर जरा विचारो।
बिन रिश्वत के काम न बनता, आती लक्ष्मी कभी न टारो।
नया ज़माना है रिश्वत को, जो ना खाता उसको मारो।
अगर सफलता पानी है तो, रिश्वत खातिर बाँह पसारो।
रिश्वतखोरी पुण्य विधा है, मिल कर महिमा को उच्चारो।
अपने बापू को मत छोडो, यह सिद्धांत बना लो प्यारो।
(57)
साधो, स्वारथ नंबर वन।
जब तक सधा, तभी तक यारी, वरना सगे भये दुश्मन।
कलजुग की है रीत निराली, सब स्वारथ के भये रतन।
त्याग कहाँ अब लूटो सबको, जीवन भर है यही जतन।
पैसा है तो प्यार करेंगे, खाली हो तो फिरे नयन।
वोट दिया जिस जनता ने, उसकी छाती पर ही गन?
अपने चेहरे से घबरा कर, तोड़ दिया खुद का दरपन ।
बड़ी अनोखी दुनिया पंकज, जियो समझ कर इसको फन॥ क्रमशः

1 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला December 5, 2009 at 1:27 AM  

बहुत सुन्दर बधाई

सुनिए गिरीश पंकज को

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