''सद्भावना दर्पण'

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साधो यह हिजड़ों का गाँव-१७

>> Friday, December 4, 2009


व्यंग्य-पद
दिल्ली और लखनऊ की व्यंग्य-यात्रा करने के बाद लौटा हूँ. सबसे पहले अपने कुछ व्यंग्य-पद पोस्ट कर रहा हूँ. कोशिश है कि सौ पद लिखो. पता नहीं यह काम हो पायेगा या नहीं, फिर भी लेखक को वैज्ञानिक की  तरह कोशिश करनी ही चाहिए. बहरहाल ३ नए पद...
(52)
मिठलबरे हैं नेता सारे।

माल खा गए मधु कौडा जी, जनता के हिस्से में नारे. 
हवा खा रहे आज जेल की, कल आयेंगे बाहर प्यारे.
बैठ गए हैं मंचों पर अब, कैसे कोई इनको टारे।
केवल घर भरने की चिंता, लोग फिर रहे मारे-मारे।
थोड़ा-सा चंदा बस दे दो, लूटो-नोचो कौन विचारे।
लोकतंत्र अब बाँझ सरीखा, यहाँ न होते चाँद-सितारे।
तन पर खादी पहन घूमते, गाँधी जी के ये हत्यारे।
(53)
साधो जोड़-तोड़ है भारी।
सबको सुविधाओं की चाहत, क्या है नर अरु क्या है नारी।
बिक जाए तन-मन भी चाहे, मिल जाए बस दौलत सारी।
प्रतिभा कम है तिकड़म ज्यादा, नए दौर की है बीमारी।
अच्छे तो ता घर पर बैठो, बाहर हैं केवल व्यापारी।
कैसे कोई पकड़ा जाए, चोर-पुलिस में जब हो यारी ।
(54)
आखिर यह कैसा भगवान।
जिसकी नज़रों के सम्मुख ही, पलते रोज बड़े शैतान।
कभी लुटे नारी की अस्मत और कभी मानव की शान।
नगर सेठ या नगर के पापी, करते पूजा-अर्चन-ध्यान।
शरम नहीं आती मिल जाते, जहाँ-तहाँ भूखे इंसान।
क्यों है ऐसा इस पर कहते, विधना का है यही विधान।
ठ्रस्टी सब परसाद खा गये, प्रभु हो गये अंतर्धान।
इनके सम्मुख सकल करम हो, मगर न होवे इनको ज्ञान?
हाय-हाय ये कैसी पूजा, भक्तों में न रहा ईमान।

3 टिप्पणियाँ:

राजीव तनेजा December 4, 2009 at 6:29 AM  

आजकल के हालात को दर्शाते समयानुकूल व्यंग्य पद...पढकर आनंद आ गया...

आप एक सौ क्या...दस हज़ार का आंकड़ा भी पार करेंगे

ब्लॉ.ललित शर्मा December 4, 2009 at 6:46 AM  

दिल्ली लखनऊ तार दिये अब हमको भी तो तारो।
आप यात्रा पर चल दिये कैसे होय हमरो निबारो॥

आभार,

Yogesh Verma Swapn December 4, 2009 at 4:42 PM  

bahut umda vyangya men kamaal.

सुनिए गिरीश पंकज को

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