''सद्भावना दर्पण'

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एक नई कविता/बाल-सखा तितलियों की तरह आते है जीवन में

>> Monday, December 7, 2009

बाल-सखा तितलियों की तरह आते है जीवन में
बहुत दिनों के बाद
जब किसी बाल-सखा से मिलो
तो ऐसा लगता है कि
वक्त के बैंक ने हमें
अचानक बहुत-सारा डिविडेंड भेज दिया है
हम फ्लेशबैक वाली सिनेमाई रील में तब्दील हो गए है.
सहसा हम हो जाते है बच्चे
शरारत करते है.आँखों-आँखों में
और मटरगश्ती 
बाल-सखा मिल जाए तो पता नहीं
कहाँ से पानी चला आता है
आँखों के भीतर
और बहता रहता है.
कभी बाहर तो कभी भीतर
कभी हंसते है
तो कभी रो पड़ते है 
बाल-सखा तितलियों की तरह आते है जीवन में
और सहसा फिर उड़ जाते है बहुत दूर....
परियों के देश/ या फिर न जाने कहाँ
उस दिन जब नरसिंह वैश्य मिला तो मै
बहुत खुश हुआ
उसके जाने के बाद बहुत देर तक
आखों से बहती रही अश्रुधार
लेकिन उसे भी अपनी ज़िंदगी में लौटना था
और वह चला गया
सहसा उदासी के रेगिस्तान में छोड़ कर
कभी-कभी सोचता हूँ कि बचपन के दिन
इतनी जल्दी क्यों बीत जाते है
क्यों नहीं होता बचपन का एक दिन
एक साल की तरह?
बहुत दिनों के बाद जब किसी बाल सखा से मिलो तो
तो सोचना हम पौधों में तब्दील हो गए है
और बड़े हो रहे हैं धीरे-धीरे
वक्त के सिपाही को अंगूठा दिखाते
बाल सखा के हाथों को
अपने हाथो में ले कर खड़े रहना कुछ देर
फिर देखना
उसकी हथेलियों का ताप
कैसे तुम्हे यकायक फिर जवान कर देता है.
बहुत दिनों के बाद
जब किसी बाल-सखा से मिलो
तो खुद को बड़ा समझने की नादानी मत करना.
प्लीज़ ....

2 टिप्पणियाँ:

Unknown December 7, 2009 at 9:13 AM  

कभी-कभी सोचता हूँ कि बचपन के दिन
इतनी जल्दी क्यों बीत जाते है
क्यों नहीं होता बचपन का एक दिन
एक साल की तरह?

बहुत खूब लिखा..गिरीश भाई। साधुवाद।

- पंकज शुक्ल
http://manjheriakalan.blogspot.com/2009/12/7.html

Sulabh Jaiswal "सुलभ" December 8, 2009 at 3:23 AM  

आपके लेखन, वो अनमोल बचपन याद दिलाते हैं -

एक कविता कुछ संस्मरण ऐसी थी - http://sulabhpatra.blogspot.com/2008/12/blog-post_20.html

धन्यवाद

सुलभ

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