दर्द मेरा... ज़िन्दगी में आ गयी औरत
>> Sunday, December 6, 2009
दो नयी ग़ज़लें...
(१)
तुम जो आये तो लगे महका चमन
दर्द मेरा अब तुम्हारा बन गया है ज़िन्दगी का इक सहारा बन गया है
तुम जो आये तो लगे महका चमन
रोज़ ही ऐसा नज़ारा बन गया है
जो बुरा था वो नज़र से गिर गया है
जो भला था नैन-तारा बन गया है
ज़िन्दगी ने उसको ऐसा कर दिया है
था कभी शबनम शरारा बन गया है
इक गया तो दर्द दूजा आ गया
सिलसिला अब एक प्यारा बन गया है
हो गया अहसास ग़लती का उसे
अब सगा पंकज हमारा बन गया है
(२)
ज़िन्दगी में आ गयी औरत
ज़िन्दगी में आ गयी औरत आदमी को खा गयी औरत
कौन है माँ-बाप.. भूले सब
इस तरह से छा गयी औरत
आदमी कमज़ोर है कितना
हां पता यह पा गयी औरत
चाह कर वो छूट न पाया
आ गयी फिर ना गयी औरत
रूप की ताकत समझती है.
बस यहीं उलझा गयी औरत
एक दिन जादू उतरता है
बन गयी अब माँ गयी औरत
( मै औरतों का बहुत सम्मान करता हूँ. अच्छी औरतो से भरी है यह दुनिया. लेकिन उपर्युक्त ग़ज़ल में घरफोडू औरतो के सन्दर्भ में कुछ शेर कहने की कोशिश की गयी है. इसे स्त्री -विरोधी विचार न समझा जाये. रचना के मर्म को सुधी पाठक समझेंगे ही, ऐसा विश्वास है. )
3 टिप्पणियाँ:
गिरीश जी,
ग़ज़ल की शुरुआती अशआर पढ़ कर तो मैं सच में कुछ और ही सोचने लगा था किन्तु मकते पर आते आते आपके सोच की गहराई का पाता चला !
अच्छी रचना ! धन्यवाद !!
अच्छी रचना है , पर यह ( १ ) के कविता के लिए है ।(२ ) के लिए नहीं ।
behatareen rachnayen.
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