बहुत दिनों से भीतर कोई गीत../ जब तक दाना-पानी है...
>> Monday, December 14, 2009
सृजन का क्षण...

मैंने महसूस किया है कि कुछ चिट्ठाकार अच्छे लेखक है, साहित्य कर्मके प्रति गंभीर नज़र आते हैं. उनमे अच्छे लेखक होने की बड़ी संभावना है. मेरा विशवास है ये भविष्य के सफल लेखक भी साबित होंगे. ऐसे साहित्य-प्रेमी-चिट्ठाकार चाहे तो अपनी सृजन प्रक्रिया के बारे में मुझे भी कुछ बताये, ताकि विचारों का आदान-प्रदान हो सके.
बहरहाल, सृजन के मामले में सबके अपने-अपने अनुभव होते है.खैर, इस मुद्दे पर फिर कभी विस्तार से सृजन -प्रक्रिया को समर्पित एक गीत यहाँ प्रस्तुत है.
गीत ////////
बहुत दिनों से भीतर कोई गीत नहीं है आया...
बहुत दिनों से भीतर कोई गीत नहीं है आया,
भाव कहाँ निर्वासित बैठे, पता नहीं लग पाया...
जब भी सोचूँ, कुछ लिखना है,
कभी नहीं कुछ सूझा.
और अचानक कलम चल गयी,
इसे नहीं कुछ बूझा.
किसने आ कर के ये सहसा,
मुझसे काम कराया..
बहुत दिनों से भीतर कोई गीत नहीं है आया,
भाव कहाँ निर्वासित बैठे, पता नहीं लग पाया...
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सोने के चक्कर में जागे,
नींद नहीं आ पाई.
इस पागल मनवा ने हरदम,
अपनी रात गंवाई...
और कभी जब सोए तो-
सपनो ने बहुत जगाया.
बहुत दिनों से भीतर कोई गीत नहीं है आया,
भाव कहाँ निर्वासित बैठे, पता नहीं लग पाया...
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मन में कुछ हलचल होते ही,
भाव चले आते हैं.
रहते हैं कुछ पल अंतस में,
और चले जाते है.
अक्सर मेरे शब्द-सुतों ने,
विचलन दूर भगाया..
बहुत दिनों से भीतर कोई गीत नहीं है आया,
भाव कहाँ निर्वासित बैठे, पता नहीं लग पाया...
(२)////////
एक ग़ज़ल
जब तक दाना-पानी है
अपनी राम कहानी है.
पागल ही इतराते है
दो दिन की जिनगानी है.
खुद्दारी है, जब तक तेरी,
आँखों में कुछ पानी है.
काम आ गए दुनिया के
तब जीवन का मानी है
दिल तोड़ो न अपनों का
बहुत बड़ी नादानी है
साथ न हो तेरा तो पंकज
हर मौसम बेमानी है.
7 टिप्पणियाँ:
khoobsurat.....
girish ji bilkul sahi likha hai aapne rachna/achchi rachna apne aap dil se nikalti hai , zabardasti nahin ban pati. bilkul aap jaise anubhav hain mere bhi aur " bahut dinon se ............pata nahin lag paya. yahi hota hai.
donon rachnayen lajawaab.
गज़ल और गीत-दोनों उम्दा!!
आपने सही कहा है ..... कविता या ग़ज़ल बैठ कर लिखना चाहो तो नही लिखी जाती ......... अपने आप अचानक ही कभी कभी कुछ ख्याल आते हैं और वो सृजन बन जाता है ..........
आपका गीत और ग़ज़ल बहुत ही लाजवाब है .......... छोटी बहर में लिखी ग़ज़ल के शेर बहुत हक़ीकत के करीब हैं .........
खुद्दारी है, जब तक तेरी,
आँखों में कुछ पानी है.
बहुत खूब .....!!
काम आ गए दुनिया के
तब जीवन का मानी है
सही कहा ......!!
दिल तोड़ो न अपनों का
बहुत बड़ी नादानी है
सचमुच.....पर ये जानते हुए भी सभी ये नादानी कर बैठते हैं .....!!
साथ न हो तेरा तो पंकज
हर मौसम बेमानी है.
पंकज जी आपकी बात से अक्षरश: सहमत हूँ...गीत ग़ज़ल या साहित्य का कोई भी प्रकार प्रयास से नहीं आता...अगर प्रयास करने पर गीत ग़ज़ल बने तो उसमें जान नहीं होती...जो अपने आप मन में उतरें उन भाव से जो भी सृजन होगा वो ही संतुष्टि देगा...
नीरज
आपने सही कहा है ..... कविता या ग़ज़ल बैठ कर लिखना चाहो तो नही लिखी जाती ......
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