बूढ़ी आँखें..जवान आँखें...
>> Thursday, December 17, 2009
कल पेंशनर दिवस था.१७ दिसंबर को. रेलवे से सेवानिवृत्त स्टेशन मास्टर केवीआर शरमा जी ने मुझ नाचीज़ को अतिथि बनाकर बुलाया था. संकोच हो रहा था, लेकिन गया. वहां सारे ही बुजर्ग थे. दस ऐसे रेल कर्मियों को सम्मानित किया गया, जिनकी उम्र काफी हो चुकी थी. दो लोग तो अस्सी पार कर चुके थे.ये लोग कार्यक्रम में बैठे ज़रूर थे, अपना सौभाग्य ही मानता हूँ कि इनको शाल-श्री फल दे कर मैंने सम्मानित किया, लेकिन मैंने महसूस किया कि ये आँखे कहीं और खोयी हुई थी. न जाने कहाँ. मैंने बहुत-सी बाते कहीं,.सब तो याद नहीं लेकिन लगा कि कविता में अपने मन की बात उतार ही दू. बुजुर्गों पर , उनकी समस्याओं पर खूब लिखा गया है, फिल्मे भी बनी है. मुझे लगता है कि लगातार लिखा जाना चाहिए. वैसे अब तो स्वार्थी, नालायक, अपराधी किस्म के लड़को की एक पूरी फ़ौज ही तैयार हो चुकी है. उन पर कविता का, कहानी का क्या असर हो सकता है. फिर भी बात कही जानी चाहिए.इसी गरज से बस बैठ गया हूँ लिखने. देखे...
और इसमे भी निकल आयी है नयी कोंपल
जवान आंखों के सामने कल है इसलिए
बूढ़ी आँखों के लिए वक्त नहीं है उसके पास
जवान आखों के सामने संघर्ष है.
जवान आखों का अपना सुख है.
जर्जर घर है या
6 टिप्पणियाँ:
बेहद भावुक , संवेदनशील और आज के समाज को आइना दिखाती रचना
bahut achchi rachna.
बहुत ही मार्मिक ! इस विडंबना के लिए हम सब कहीं न कहीं दोषी हैं.
इक शेर मैं जिसे याद रखता हूँ.काश लोग इस पैर अमल करते:
माँ-बाप की खिदमत मैं इसलिए करता हूँ
इस पेड़ का साया भी बच्चों को मिलेगा
दिल को छू रही है यह कविता .......... सत्य की बेहद करीब है ..........
गिरीश पंकज आपका करता हूँ मैं आभार व्यक्त
आपकी कविताऐँ है यह ज़िंदगी का आइना
है नेहायत ख़ूबसूरत आपका दिलकश ब्लाग
है नुमायाँ जिस से पंकज ज़िंदगी का सोज़ो साज़
अहमद अली बर्की आज़मी
विदेश प्रसारण सेवा
आकाशवाणी,नई दिल्ली
aadarniya pankj jee
aapki ye panktiya "budi aankhe jawan aankhe" ek behad is shandar aur jiwant jewan ki sachhai ko aaina dhika rahi hai ..
par kaash " bhoutik" shuko ke aage koi in "bhawantamak" sukh ko samaj sakhe..
behad samvedansheel kavita hai aapki..is alkh ko jagane ke liye aapko badhi..is ummed se ki wo subha kabhi to aaygee..
thanks
suneel
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