''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

काव्यात्मक व्यंग्य / सांताक्लाज का गिफ्ट

>> Thursday, December 24, 2009

सुधी पाठकों को मैरी क्रिसमस...
सांताक्लाज का गिफ्ट....
नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे/खुशियाँ बांटने सांताक्लाज पधारे
लंबी सफेद दाढ़ी, मगर मुसकराता हुआ नूरानी चेहरा/ चेहरे पर दार्शनिकता का पहरा/ समझने वाले के लिए अर्थ भी था गहरा. सिर पर लंबी टोपी और कंधे पर लदी गठरी/ उनको देखते ही टूट पड़ी सारी नगरी/ और देखते ही देखते यही अलफ़ाज़ छा गए/... कि सांताक्लाज आ गए... सांताक्लाज आ गए../चारों तरफ शोर मच गया। भीड़ लग गई। सब चीख रहे थे कि /
सारा माल इधर शिफ्ट कर दो/ 'बाबा मुझे खुशियाँ गिफ्ट कर दो.
''मुझे... मुझे... मुझे...
सांताक्लाज का मुसकराता चेहरा गंभीर हो गया/ अचानक उदास इक पीर हो गया/. वे बोले ''अरे भई तुम लोग पहले तो कभी इस तरह से पागलपन नहीं दिखाते थे/ मैं जो कुछ भी देता था, प्रेम से रख वापस चले जाते थे/ इस बार ये मैं... मैं की रट क्यों, और किसलिए लगा रहे हो? भूखे-नंगों की तरह क्यों चिल्ला रहे हो ?''
''बाबा, आप जानते नहीं, ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है।'' एक बेसब्रे  ने कहा, 'लाइए-लाइए/ अब हम सबको अधिक से अधिक आइटम चाहिए/ आपको क्या मालूम कि आज 'कामपिटीशन' का ज़माना है/ पड़ोसी के यहाँ जो चीज़ है, उसे हमारे यहाँ भी तो लाना है./ बाबा, बस यही नौटंकी तो बची है/ हें..हें..इसलिए हाय-तौबा मची है।''
''भई, यही तो असंतोष की जड़ है, कि तुम लोगों में संतोष नहीं है/ क्या तुम लोगों को अपनी हरकत पर रत्ती भर अफ़सोस नहीं है?'' सांताक्लाज ने कहा, 'भूल गए, कि जब आए संतोष धन, सब धन धूरि समान?/ संतोष रखने वाला ही होता है महान..?''
''बाबा, आप कहते तो ठीक हैं।''दूसरे सज्जन बन कर कुछ भोले/मुस्कराते हुए बोले, 'लेकिन एक्चुअल में क्या है, कि जिसने संतोष धन के सहारे जीने का संकल्प किया/ उसके घर में ही टेंशन हो गया. / हम तो ठीक है, मान लेते हैं आपकी बात लेकिन घर वालों को कैसे मनाएंगे ? / वो तो हमारे पीछे ही पड़े जाएँगे./ कहते है-जाओ, जाओ, सारा बाज़ार उठा कर ले आओ/''
सांताक्लाज को लगा, मामला उपदेश से शांत नहीं हो पाएगा./यहाँ तो आज खज़ाना लुट ही जाएगा./ सो उन्होंने कहा - ''अच्छा, अच्छा, शोर मत मचायिए / एक-एक कर के आइये /और हाँ, अब कहो, आपको क्या चाहिए?''
''मुझे एक बाइक मांगता ।'' एक यंग लड़का लपक कर बोला
''मुझे वॉशिंग मशीन चाहिए।'' दूसरे ने मुंह खोला
''मुझे एक ठो फ्लैट कलर टीवी चाहिए।'' तीसरा लपका
''और मुझे चाहिए मल्टीमीडिया साउंड सिस्टम।'' चौथा भी टपका.
''मुझे नए मॉडल की कार चाहिए।'' पाँचवे ने फरमाया
''मुझे तो फोर ट्रेक आडियो सिस्टम और लेटेस्ट मोबाइल चाहिए।'' छठा भी चिल्लाया
मुझे दौलत बेशुमार चाहिए..... फ़िल्मी हीरोइन का प्यार चाहिए.....बस, इसके बाद भीड़ पिल पड़ी - ''मुझे... मुझे.. मुझे...।'' सान्ताक्लाज़ घबराए, अरे, पहले इसे या तुझे..?
हाहाकरा-सा मच गया था/ सबका खाना पच गया था./ शोरगुल के बीच सांताक्लाज को कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा/
उन्हें एक ऊंचे मंच पर खड़ा होना पडा./ फिर सांताक्लाज ने हाथ लहरा कर लोगों को शांत किया और बोले-
'' अरे भोले...भाइयो और बहनो/ आप लोगों की माँग देख कर मुझे तो यही लग रहा है, कि आप लोग मीडिया के प्रभाव से खूब ग्रस्त हैं/ इसीलिए इतने त्रस्त हैं./ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का कुछ ज्यादा असर है / इसीलिए इतना कहर है/.आजकल टीवी पर तरह-तरह के आकर्षक विज्ञापन दिखाए जाते हैं/ अप लोग डेली भरमाए जाते है./ ये खरीदने पर वो मुफ्त का लालच दिया जाता है/ बस, आदमी इस चक्कर में ही फंस जाता है./ तुम लोगों के दिमाग में टू व्हीलर, कार, टीवी भर गया है/ तुम लोगो को देख सान्ताक्लाज़ बहुत डर गया है./ बाईगाड... तुम लोगों को मेरी पोटली से ये सब चीज़ें नहीं मिल पाएगी/. माफ़ करना, तुम लोगों की मुरझायी तकदीर नहीं खिल पाएगी/. अरे, भई कार चाहिए न ? तो जाओ, चड्डई -बनियान खरीद लो/ स्कूटर चाहिए तो नौ सौ निन्यानवे रुपया खर्च करो, टू व्हीलर ले आओ/ मेरा सर मत खाओ./ मुझे क्यों कर रहे हो परेशान ?/ हे गाड, हे भगवान...''
सांताक्लाज की फटकार सुन कर सबके सब हो गए खामोश./ करने लगे अफ़सोस/ कि सांताक्लाज को नाराज़ कर दिया है/. लगता है अब ये लौट जाएँगे./ हम लोग गिफ्ट नहीं पाएँगे.
थोड़ी देर तक शांति छाई रही। फिर एक सज्जन ने धीरे से कहा- ''बाबाजी, आप तो त्यागी हैं। महान ज्ञानी हैं। परम संतोषी हैं/ लेकिन हम लोग तो मनुष्य हैं न/ इसलिए नालायक है, दोषी है/ हमारी जीभ तो कुछ न कुछ पाने के लिए लपलपाती ही रहती है/ इसलिए यहाँ-वहां मंडराती रहती है./ सुनो-सुनो, हमारी इच्छा पूरी कर दो/ हमारा झोला कुछ न कुछ गिफ्ट दे कर भर दो./
सांताक्लाज मुस्कराए। बोले- ''तुम्हें गिफ्ट देने ही तो आया हूँ/ बहुत कुछ लाया हूँ/ जरूर दूँगा/प्रभु यीशु ने मुझे आदेश दिया है, कि जाओ,/ दुनिया को बड़े दिन का गिफ्ट दे कर आओ/ लो, मैं आज तुम्हें असली गिफ्ट दे रहा हूँ/ इसे चुपचाप धर लो/ और जीवन को खुशियों से भर लो/ चलो, मेरी तरफ हाथ कर लो/ मेरी इस गठरी में जो गिफ्ट हैं, वह और कहीं नहीं मिल सकता। आओ, आओ/ अपने हाथ बढ़ाओ -
'ये रही नैतिकता, तुम रख लो।''
'ये रही ईमानदारी...तुम चख लो।''
'ये रही मानवता... तुम ले जाओ..''
'ये रही पड़ोसी से प्यार की भावना। इसे भी आजमाओ''.
'ये है संतोष, माताराम, रख लो। तुम्हारे काम आएगा''.
'और तुम ले लो त्याग... तुम करुणा। हर कोई तुम्हारे गुण गायेगा.''
'आओ-आओ ये सारे गिफ्ट तुम लोगों को एक साथ बाँट देता हूँ। और तुम्हारी सारी बलाएँ अभी...इसी वक़्त काट देता हूँ.''
इतना बोल कर सांताक्लाज ने जैसे ही अपनी गठरी खोल कर हवा में उछाली/ सबके चेहरे पर पसर गयी लाली/ लेकिन कुछ लोगों के चेहरे मुरझा गए/ वे अचकचा गए/ कि ये भी कोई गिफ्ट है भला/. हमें तो कुछ्छो नहीं मिला/. लेकिन कुछ लोगों को लगा, कि सांताक्लाज ने उनको जीवन जीने का मंत्र दे दिया है/ जीने का सच्चा तंत्र दे दिया है/ वे लोग अपने-अपने गिफ्ट आइटमों से खुश थे। कुछ बेचारे फुस्स थे/
अभागे दुखी मन से वापस लौटे कि बेकार दिन निकला आज/... बड़ा आया है सांताक्लाज/ अरे कुछ आईटम तो देना था./ उसके पास कुछ नहीं था तो हमसे ही ले लेना था/.
अचानक वे लोग उत्साहित हो गए। अरे सांताक्लाज न सही, बैंक तो हैं। सब खुश हो गए खड़े-खड़े.../ और कर्ज लेने बैंक की ओर चल पड़े/
उधर सांताक्लाज 'मैरी क्रिसमस' कहते हुए हाथ-हिलाते रहे/ लोगों की बाजारू मानसिकता पर मंद-मंद मुस्काते रहे/
फिर वे चरित्र की तरह अदृश्य हो गए/ और हम दुबारा सुन्दर-सा कोई सपना देखने फिर सो गए.

2 टिप्पणियाँ:

Yogesh Verma Swapn December 25, 2009 at 3:27 AM  

bahut rangeen laga aapka sapna............................doosre sapne ki aankhon dekhi ki intzaar mein.

Divya Narmada December 30, 2009 at 8:10 AM  

सांताक्लाज जी! जब तक गिरीश जी की तरह रोज एक गजल नहीं बाँटोगे, हम तुम्हारे मुरीद नहीं होंगे.

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP