एक ग़ज़ल
>> Saturday, December 26, 2009
ग़ज़ल या कविता खुद अपने आप में एक वक्तव्य होती है.उसको प्रस्तुत करने के लिए वक्तव्य की ज़रुरत नहीं होती. रचना अपने समय से जीवंत संलाप कराती है . अपने काल की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियाँ रचना में दर्ज होती है. दरअसल सही कविता समय के दर्द का बयान ही होती है. कविता की सार्थकता भी तभी है जब वह कुछ सच कहे, मगर वह भी साफ-साफ़ कहे. कविता इतनी प्रतीकात्मक न हो जाए कि वह विशुद्ध कलात्मक बन कर ही रह जाए. कविता लोगों के काम भी आये. वे कविता को अपनी स्मृतियों में भी सुरक्षित रख सके. बहरहाल, पेश है एक नई ग़ज़ल-
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झूठे जब आदर्श दिखाने लगते हैं
पहले से ज्यादा गंधाने लगते हैं
जिनका पेट भरा होता है वे बढ़ कर
उपवासों का मर्म बताने लगते हैं
वंचित को मिल जाए कुरसी तो अक्सर
अपने जन को वही सताने लगते हैं
छल-छंदों से ही दुनिया खुश रहती है
इसीलिये हम भी मुसकाने लगते हैं
खाली जेब रहे तो कौन इधर आए
हों पैसे तो सारे आने लगते हैं
वर्त्तमान हो जैसा लेकिन यह सच है
बीते दिन ही बड़े सुहाने लगते है
अगर मुसीबत आ जाये तो हम केवल
अपनी हिम्मत आजमाने लगते हैं
स्वारथ पूरा ना हों तो फिर देखा है
अपने ही पंकज बेगाने लगते हैं
5 टिप्पणियाँ:
वर्त्तमान हो जैसा लेकिन यह सच है
बीते दिन ही बड़े सुहाने लगते है ...
सार्थक ग़ज़ल ........ हक़ीकत के शेरों से सजी ग़ज़ल .......
वर्त्तमान हो जैसा लेकिन यह सच है
बीते दिन ही बड़े सुहाने लगते है
-टेलीपैथी-आज की मेरी आ रही पोस्ट इसी पर है..वाह!!
एक एक लाइन सच बयाँ करती है..बहुत बढ़िया ग़ज़ल गिरीश जी धन्यवाद स्वीकारें!!!
हमको तो पंकज वे ही मन-भाते हैं
दिल छूती जो गजल सुनाने लगते हैं.
दिल छूती गजल
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