ग़ज़ल/ अपनी जान जलाते क्यों हो
>> Monday, December 28, 2009
अपनी जान जलाते क्यों हो
लोगों को समझाते क्यों हो
हृदयहीन बस्ती में जा कर
अपने शेर सुनाते क्यों हो
भीतर-भीतर दर्द समेटे
बाहर तुम मुस्काते क्यों हो
गूंगी-बहरी कुरसी को तुम
दर्देदिल बतलाते क्यों हो
जहां तुम्हारी इज्ज़त न हो
उस दर पे तुम जाते क्यों हो
अगर प्यार सच्चा है तो फिर
इसको सदा छिपाते क्यों हो
माना के अहसान कर दिया
हरदम इसे जताते क्यों हो
दिल से दिल तो ना मिल पाया
केवल हाथ मिलाते क्यों हो
लोग पढ़ेंगे तेरा लिक्खा
खुद को यूं बहलाते क्यों हो
प्यार नहीं है 'पंकज' से तो
बार-बार यूं आते क्यों हो
6 टिप्पणियाँ:
गिरीश जी
बहुत ही सीधे लहजे में कही गयी एक भाव पूर्ण रचना......
ग़ज़ल अच्छी है भाई.!
बहुत ही सहज सरल शब्दों में आप ने गम्भीर बातें कह दीं.
सभी शेर बहुत अच्छे हैं.
जहां तुम्हारी इज्ज़त न हो
उस दर पे तुम जाते क्यों हो
WAAH ! WAAH ! WAAH !
BAHUT HI UMDA...SABHI KE SABHI SHER LAJAWAAB !!!
BAHUT HI SUNDAR RACHNA....
ग़ज़ल अच्छी है ...
gambheerta liye huye behatareen rachna.
'सलिल' कद्रदां मित्र तुम्हारा
उस बिन गजल सुनते क्यों हो?...
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