''सद्भावना दर्पण'

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एक ग़ज़ल...दर्द की यूं मेहरबानी हो गई

>> Tuesday, December 29, 2009


ग़ज़ल...
दर्द की यूं मेहरबानी हो गई
अपनी तो ये ज़िंदगानी हो गई

हो शरीफों की यहाँ कैसे गुजर
शातिरों की राजधानी हो गई 

बेशरम इस दौर के हालात पर 
शर्म भी अब पानी-पानी हो गई

सच यहाँ इक बार सम्मानित हुआ 
बात यह किस्सा-कहानी हो गई

अब तो बदलेंगे यहाँ हालात भी 
क्योंकि अब पागल जवानी हो गई 

उड़ गई है नींद आँखों से इधर
क्या करें बिटिया सयानी हो गई

जब कभी प्रियजन दिखे तो यूं लगा 
ज़िंदगी अपनी सुहानी हो गई

मुफलिसी में प्रेम क्या रुकता कभी 
मैं हूँ राजा, तू भी रानी हो गई

नेह पा कर खिल उठा पंकज सदा 
उनकी हम पर मेहरबानी हो गई  

8 टिप्पणियाँ:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" December 29, 2009 at 9:53 PM  

बेहद सुन्दर रचना !

ब्लॉ.ललित शर्मा December 29, 2009 at 10:00 PM  

मुफलिसी में प्रेम क्या रुकता कभी
मैं हूँ राजा, तू भी रानी हो गई

नेह पा कर खिल उठा पंकज सदा
उनकी हम पर मेहरबानी हो गई

एक-एक शेर उम्दा है, किस-किस की चर्चा करुं, बहुत बढिया गजल, गिरीश भैया नव वर्ष की शुभकामनाएं

दिगम्बर नासवा December 30, 2009 at 12:33 AM  

उड़ गई है नींद आँखों से इधर
क्या करें बिटिया सयानी हो गई ..

ग़ज़ब का शेर ...... यथार्थ की ज़मीन से जुड़ा ........
कमाल के शेर हैं सब ............ पूरी ग़ज़ल बेतहरीन है .........

नीरज गोस्वामी December 30, 2009 at 3:31 AM  

वाह पंकज जी वाह...आनंद आ गया आपकी ग़ज़ल पढ़ कर...बेहतरीन...हर शेर बार बार पढने को जी करता है...बहुत खूब...
नव वर्ष की शुभकामनाएं स्वीकार करें
नीरज

निर्मला कपिला December 30, 2009 at 3:49 AM  

हो शरीफों की यहाँ कैसे गुजर
शातिरों की राजधानी हो गई

बेशरम इस दौर के हालात पर
शर्म भी अब पानी-पानी हो गई
वाह पंकज जी बहुत ौम्दा गज़ल है बधाई

Udan Tashtari December 30, 2009 at 6:07 AM  

वाह जी, बहुत उम्दा गज़ल कही है. आनन्द आ गया.


मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.


नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.

Divya Narmada December 30, 2009 at 7:57 AM  

वाह...वाह... मजा आ गया.

नए वर्ष का
हर नूतन दिन
अमल-धवल यश
कीर्ति विमल दे..

Divya Narmada January 6, 2010 at 9:35 AM  

जब 'सलिल' को ग़ज़ल के पंकज मिले.
यूं लगा की बागबानी हो गयी..

सुनिए गिरीश पंकज को

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