एक ग़ज़ल...दर्द की यूं मेहरबानी हो गई
>> Tuesday, December 29, 2009
ग़ज़ल...
दर्द की यूं मेहरबानी हो गई
अपनी तो ये ज़िंदगानी हो गई
हो शरीफों की यहाँ कैसे गुजर
शातिरों की राजधानी हो गई
बेशरम इस दौर के हालात पर
शर्म भी अब पानी-पानी हो गई
सच यहाँ इक बार सम्मानित हुआ
बात यह किस्सा-कहानी हो गई
अब तो बदलेंगे यहाँ हालात भी
क्योंकि अब पागल जवानी हो गई
उड़ गई है नींद आँखों से इधर
क्या करें बिटिया सयानी हो गई
जब कभी प्रियजन दिखे तो यूं लगा
ज़िंदगी अपनी सुहानी हो गई
मुफलिसी में प्रेम क्या रुकता कभी
मैं हूँ राजा, तू भी रानी हो गई
नेह पा कर खिल उठा पंकज सदा
नेह पा कर खिल उठा पंकज सदा
उनकी हम पर मेहरबानी हो गई
8 टिप्पणियाँ:
बेहद सुन्दर रचना !
मुफलिसी में प्रेम क्या रुकता कभी
मैं हूँ राजा, तू भी रानी हो गई
नेह पा कर खिल उठा पंकज सदा
उनकी हम पर मेहरबानी हो गई
एक-एक शेर उम्दा है, किस-किस की चर्चा करुं, बहुत बढिया गजल, गिरीश भैया नव वर्ष की शुभकामनाएं
उड़ गई है नींद आँखों से इधर
क्या करें बिटिया सयानी हो गई ..
ग़ज़ब का शेर ...... यथार्थ की ज़मीन से जुड़ा ........
कमाल के शेर हैं सब ............ पूरी ग़ज़ल बेतहरीन है .........
वाह पंकज जी वाह...आनंद आ गया आपकी ग़ज़ल पढ़ कर...बेहतरीन...हर शेर बार बार पढने को जी करता है...बहुत खूब...
नव वर्ष की शुभकामनाएं स्वीकार करें
नीरज
हो शरीफों की यहाँ कैसे गुजर
शातिरों की राजधानी हो गई
बेशरम इस दौर के हालात पर
शर्म भी अब पानी-पानी हो गई
वाह पंकज जी बहुत ौम्दा गज़ल है बधाई
वाह जी, बहुत उम्दा गज़ल कही है. आनन्द आ गया.
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
वाह...वाह... मजा आ गया.
नए वर्ष का
हर नूतन दिन
अमल-धवल यश
कीर्ति विमल दे..
जब 'सलिल' को ग़ज़ल के पंकज मिले.
यूं लगा की बागबानी हो गयी..
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