''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

गीत / सागर पास बुलाए

>> Sunday, January 17, 2010

मारीशस जाने का सौभाग्य जिनको मिला है, उन्होंने वहां के सागर को भी देखा होगा.उसका नीलाभ एवं पारदर्शी पानी देख कर मन मुग्ध हो जाता है.  मुझे मारीशस जाने को मौका मिला था. समकालीन साहित्य सम्मलेन का अधिवेशन वहां आयोजित किया गया था.हम लोग सागर तट पर ही स्थित एक होटल में ठहरे थे, और प्रतिदिन सागर का दीदार करते रहे. उसके पास जाते थे. उसमे उतरते थे. सागर के पानी से खेलते थे. सागर हमें बार-बार अपने पास बुलाता था. वैसे सागर कहीं का भी हो, मारीशस का, थाईलैंड का, पुरी का, मुंबई का, कहीं का भी हो, उसमे सम्मोहन होता है. उसकी भव्यता हमे प्रेरित करती है कि उसके निकट जाएँ, बैठे, बतियाएँ. बहरहाल, सागर को देख कर मान में जो हलचल  हुई थी, वह एक गीत के रूप में उसी वक़्त आकार ले चुकी थी. अचानक वह गीत कागजों के कबाडखाने में पडा मिल गया. इसके पहले कि यह कागज़ भी कहीं गुम हो जाये, मैंने सोचा, इसे लोकार्पित कर दिया जाये. सो, सुधी लेखक-पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
  गीत 
सागर पास बुलाए, लहरें-
करती हैं वंदन.
कर लूं इनके प्रेम-भाव का,
मैं भी अभिनन्दन..


जाने कैसे मन की बतियाँ,
पढ़ती हर इक लहर.
ऐसा अद्भुत मिलन लगे है,
जाये काल ठहर.
लौटे जब-जब पाँव, बरहनी 
करती है क्रन्दन.

नाच रही है कोई उर्वशी,

उठा प्रेम का ज्वार.
दूर न जाओ मेरे प्रीतम,
अभी अधूरा प्यार.
चन्द्रकिरण मनुहार करे है
टूटे हर बंधन.


क्षणभंगुर जीवन है जिसमे,
कोई गीत नही.
वह भी कैसा अंतस जिसका.
अपना मीत नहीं.
बान्चूं पाती चलो लहर की,

निरखूँ स्पंदन..


सागर पास बुलाए, लहरें-
करती हैं वंदन.
कर लूं इनके प्रेम-भाव का,
मैं भी अभिनन्दन..

5 टिप्पणियाँ:

Yogesh Verma Swapn January 18, 2010 at 7:33 AM  

behatareen.

Kusum Thakur January 18, 2010 at 8:43 AM  

क्षणभंगुर जीवन है जिसमे,
कोई गीत नही.
वह भी कैसा अंतस जिसका.
अपना मीत नहीं.

बहुत ही कोमल शब्दों से सजी है आपका यह गीत !!

श्रद्धा जैन January 19, 2010 at 6:21 AM  

क्षणभंगुर जीवन है जिसमे,

कोई गीत नही.

वह भी कैसा अंतस जिसका.

अपना मीत नहीं.

बान्चूं पाती चलो लहर की,


निरखूँ स्पंदन..


bahut achcha geet Pankaj ji
lahron ke beech is bhavna ka janam kavi man ke liye nishchit tha
aisa morma vatavaran ho aur kalam n chale aisa bhi kabhi hota hai

दिव्य नर्मदा divya narmada January 20, 2010 at 7:12 AM  

saras geet.

Anonymous July 14, 2010 at 10:17 AM  

अच्छा लगा ।

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP