''सद्भावना दर्पण'

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महावीर वचनामृत-२

>> Saturday, January 23, 2010

गतांक से आगे .......
(11)
परिग्रहों से मुक्त जो, मिला उसे ही ज्ञान।
सुख में डूबी ज़िंदगी, करे लोक कल्यान।।

(12)
कीचड़ में भी कमल-सा, जिसका अंतस होय।
वही एक पंडित सही, और न दूजा कोय।।

(13)
लख नारी के अंग को, जागे नहीं विकार।
ब्रह्मचर्य सच्चा वही, मानव करे विचार।।

(14)
तृष्णा से हर तरुण का, होता है नुकसान।
कामातुर जो भी हुआ, गया काम से जान।।

(15)
दुनिया से तुम मत लड़ो, करो स्वयं से युद्ध।
सुख सच्चा पा कर बनो, महावीर परबुद्ध।।

(15)
बीत गई जो रात थी, सम्मुख दिखे प्रभात।
जागे से बनती रही, हरदम बिगड़ी बात।।

(16)
जैसा खुद से चाहते, हो सबसे व्यवहार।
महावीर कहते यही, सच्चा लोकाचार।।
(17)
राग-द्वेष दो पाप हैं, इनसे रह कर दूर।
बन जाएँ हम जगत के, बस चमकीले नूर।।

(18)

क़र्ज़, घाव अरु आग को, तू मन छोटा जान।
धीरे-धीरे ये बढ़ें, रहते सजग सुजान।।

(19)
क्रोध प्रीत को, विनय को नष्ट करे अभिमान।
लोभ नाश सबका करे, रे मानव पहचान।।

(20)
क्षमा जीतती क्रोध को, लोभन को संतोष।
पाप अगर अगर हो जाय तो, करना तुम अफसोस।।

3 टिप्पणियाँ:

Yogesh Verma Swapn January 24, 2010 at 1:04 AM  

bahut sunder gyaan se bharpoor dohe, girish ji maine bhi koshish ki hai dohe likhne ki ,ho sakta hai niyamanukul na hon ek nazar dalen.

Kusum Thakur January 24, 2010 at 5:57 PM  

"क्षमा जीतती क्रोध को, लोभन को संतोष।
पाप अगर अगर हो जाय तो, करना तुम अफसोस।।"

सारे दोहे एक से बढ़कर एक हैं . बहुत खूब !!

दिव्य नर्मदा divya narmada January 30, 2010 at 1:27 AM  

satprayas...

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