महावीर वचनामृत-३
>> Wednesday, January 27, 2010
तीसरी कड़ी...
(21)
चोरी, हिंसा, झूठ सब,
परिग्रहों के पाप।
जो इनमें रमता रहा,
जो इनमें रमता रहा,
अंत मिले संताप।।
(22)
ज्ञानी हिंसक ना बने,
(22)
ज्ञानी हिंसक ना बने,
करे सभी से प्रीत।
धर्मप्राण का पथ यही,
धर्मप्राण का पथ यही,
महावीर की रीत।।
(23)
धर्मप्राण जन जागते,
(23)
धर्मप्राण जन जागते,
अधम सोय दिन-रात।
जागो, आलस छोड़ दो,
जागो, आलस छोड़ दो,
मात करे प्रतिघात।।
(24)
क्रोधी, रोगी, आलसी,
(24)
क्रोधी, रोगी, आलसी,
मूढ़, घमंडी पाँच।
रहें ज्ञान से दूर ये,
रहें ज्ञान से दूर ये,
नहीं साँच को आँच।।
(25)
गुरू अपना ज्यों दीप है,
(25)
गुरू अपना ज्यों दीप है,
करे तिमिर का नाश।
जीवन भर जलता रहे,
जीवन भर जलता रहे,
करता रहे प्रकाश।।
सुधी पाठकों से अनुरोध है, कि वे मेरे नए चिंतन पर (व्यंग्य दर्पण)भी एक नज़र मार लिया करे...
सुधी पाठकों से अनुरोध है, कि वे मेरे नए चिंतन पर (व्यंग्य दर्पण)भी एक नज़र मार लिया करे...
3 टिप्पणियाँ:
.... बेहद प्रभावशाली दोहे, बधाई !!!!
गुरू अपना ज्यों दीप है,
करे तिमिर का नाश।
जीवन भर जलता रहे,
करता रहे प्रकाश।।
aapko padhkar anand ata hai.
uttam
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