''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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महावीर वचनामृत-४

>> Friday, January 29, 2010


महावीर जी के वचनों को दोहे कि शक्ल में रूपान्तरित करने का प्रयास, लगता है, सुधीजन को उतना रास नहीं आ रहा है. इसीलिये वैसी प्रतिक्रिया भी नहीं हो रही, जैसी होनी चाहिए. खैर मै इससे विचलित नहीं हूँ. मेरा काम है लिखना. पहले भी विचलित नहीं हुआ, अब क्या होऊंगा. मेरे ये वचनामृत प्रिंट में भी आयेंगे. पुस्तक रूप में. तब सामान्य जन तकभी  पहुंचेंगे. ब्लॉग तक अभी आम जन पहुंचे ही कहाँ है. बहरहाल कुछ लोग तो पढ़ ही रहे है. बात निकली है, तो फिर दूर तलक जायेगी ही. प्रस्तुत है चौथी कड़ी-
(२६)
शीलवान गंभीर जो, रहे क्रोध से दूर।
सत्यशील ज्ञानी वही, प्रियजन से भरपूर।।

(27)
उत्तमजन हैं फूल-से, जिनमें सदा सुवास।
दुर्गुण के पतझार में, ये लगते मधुमास।।

(28)
हो स्वर्ण या लौह की, है तो वह जंजीर।
पड़ो न इनके फेर में, हरो जगत की पीर।।

(29)
भले विचारों से बने, मानव की तकदीर।
नेक राह जो भी चले, वह पंडित, वह पीर।।

(30)
समता औ संतोष से, लालच को जो धोय।
वही हृदय निर्मल बने, प्रतिदिन उज्ज्वल होय।।

(31)
पंच इंद्रियों को करे, जो बस में दिन-रात।
वह जिनेंद्र हो कर बने, पृथ्वी की सौगात।।

(32)
वध करता जो जीव का, वह हिंसक  इनसान।
लाख इबादत भी करे, जीवन नरक समान।।

(33)
नारी से जो दूर है, जिसमें नेक विचार।
समझो होता है वही, भवसागर के पार।।

(34)
निर्भय औ निर्वैर हो, तब जीवन का सार।
हिंसा से जो दूर है, करे उसे जग प्यार।।

(35)
तन-मन दोनों मैं नहीं, यह तो कोई और।
मूरख इतराए मगर, ज्ञानी करते गौर।

4 टिप्पणियाँ:

दिव्य नर्मदा divya narmada January 30, 2010 at 1:22 AM  

हल्का-फुल्का यदि लिखे, पात्र मिलें भरपूर.
लिखिए यदि गंभीर तो, पात्र न मिलें हुज़ूर..

अपना भी अनुभव यही, मन-रंजन की चाह.
चिट्ठाकारों-मन पली, मत करिए परवाह..

सार्थक लिखने से मिले, निज मन को संतोष.
औ' समृद्ध हो भारती माँ, का शारद कोष..

कडुवासच January 30, 2010 at 1:43 AM  

....prabhaavashaalee abhivyakti !!!

रंजना January 30, 2010 at 4:04 AM  

Waah !!! bahut hi saarthak aur sundar sadprayaas....

Inhe yadi vyakti jeevan me vastavik roop me aatmsaat kar vyavhaar me le aaye,to sachmuch bhavsagar se paar pane me koi awrodh na bachega...

girish pankaj January 30, 2010 at 7:39 AM  

shyamkori aur ranjana ji ka aabhar. aasalil ji...aapki baat hi nirali hai.
saty likha hai aapne,
ab hai ulti reet.
achche haare ab yahaan,
luchcho ki ho jeet.
aapka sujhav hausala barhata hai. dhanyvaad.

सुनिए गिरीश पंकज को

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