ghazal /chhal ke bal par.....
>> Monday, January 11, 2010
एक ताज़ा ग़ज़ल पेश है. मुंबई में ही बनी. शहर केचरित्र को जैसा समझा, उसे शेरों में ढालने की कोशिश की है. लेकिन विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि यह ग़ज़ल मुम्बई को समर्पित नहीं है. वहां भी अच्छे लोग है. मुझे तो मिले ही. हर शेर उस प्रवृत्ति को समर्पित है, जो लोक व्यापी है. ऐसे लोग कहीं भी मिल जायेंगे. दिल्ली में, रायपुर, झुमरीतलैया में, तिम्बक्तूं में, भाटापारा में या कही भी.बहरहाल एक कोशिश की है, शेर देखे-
ग़ज़ल...
छल के बल पर टिका रहे यह जीवन कब तक
समझेंगे सूखी लकड़ी को चंदन कब तक
तेरी इस बस्ती में टोपीबाज़ मिले सब
आखिर हमको यहाँ मिलेंगे सज्जन अब तक
सबके सब तो यहाँ कर रहे धंधा-पानी
हमसे ही फ़ोकट में होगा सर्जन कब तक
बदले में तुम धन्यवाद तक बोल न पाए
खाली-पीली हमीं करें अभिनन्दन कब तक
वो तो अधिनायक बन कर के लूट रहे हैं
बेचारी जनता गायेगी जन-गण कब तक
सुनो मेरी फ़रियाद सुनोगे निष्ठुर कब तक
सुख से मेरी यहाँ रहेगी अन-बन कब तक
आ जाओ तुम इतना भी अब मत शरमाओ
शर्मोहया के टूटेंगे ये बंधन कब तक
चालू होने का ठेका वो ले कर बैठे
और रहे 'पंकज' गोपाला ठनठन कब तक
4 टिप्पणियाँ:
सुनो मेरी फ़रियाद सुनोगे निष्ठुर कब तक
सुख से मेरी यहाँ रहेगी अन-बन कब तक
हर शेर पूरा और शानदार...आनन्द आ गया!!
hamesha ki tarah behatareen. pankaj ji bahut achcha laga padh kar.
पंकज जी आपके इस नए रंग ने भी आनंद ला दिया...बेहतरीन रचना...बधाई
नीरज
ruchikar rachna.
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