''सद्भावना दर्पण'

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दस वासंती दोहे

>> Thursday, February 4, 2010

(१)

अधरों पर मुस्कान लख,
हुआ दुखों का अंत,
लगा पास फिर आ गया,
भटका हुआ वसंत.
(२)
मन में थी दुःख की लहर,
मौसम दिखा उदास,
खुशियाँ जन्मी तो लगा,
चौतरफा मधुमास.
(३)
तुमने जब-जब भी छुआ,
भागा हर संताप,
मौसम भी हँसता प्रिये,
दूर खडा चुपचाप.
(४)
रंग भरे हर पल यहाँ,
देख तुम्हारा रूप,
रूमानी लगने लगी,
पल में तीखी धूप.
(५)
गीत मगन हो गा रहा,
मन ये सुबहोशाम,
संग तेरा मिल जाये,
दुःख लागे सुखधाम..
(६)
जब तक अंतस है युवा,
प्रतिदिन रहा वसंत.
जिस दिन हारे हम हुआ,
हर वसंत का अंत..
(७)
पतझर भी हमको दिखे,
खिला-खिला मधुमास.
जीवन जीवन है तभी,
जब सुन्दर अहसास.
(८)
फूल कहें सीखो ज़रा,
तुम जीवन की रीत.
काँटों में भी हम खिलें,
बिखरा दें नव-प्रीत.
(९)
तन मिलना आसान है,
मन मिलना है दूर.
मन मिल जाये तब लगे,
प्रेम हुआ भरपूर..
(१०)
मौसम लिखता प्रेमपत्र,
बांच रहा आकाश.
बोल पड़े खगवृन्द तब,
कुहू-कुहू मधुमास.

5 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra February 4, 2010 at 6:44 AM  

जबरदस्त -एक ही भारी है यहाँ दस दस
मुला एक बात है वसंत भर तो कम से कम तन से ही काम चला लीजिये और लेने दीजिये महराज !

Yogesh Verma Swapn February 4, 2010 at 7:18 AM  

wah wah wah..................wah girishji, ..........anupam.

विनोद कुमार पांडेय February 4, 2010 at 7:55 AM  

गिरीश जी बहुत बढ़िया लग रही है आज कल आपकी दोहो से भरी पोस्टें....बधाई स्वीकारें

Sulabh Jaiswal "सुलभ" February 5, 2010 at 1:03 AM  

दुःख लागे सुखधाम..

जीवन जीवन है तभी,
जब सुन्दर अहसास.

बोल पड़े खगवृन्द तब,
कुहू-कुहू मधुमास...

एक पर एक. सब बेहतरीन है. धन्यवाद आपका.

36solutions February 5, 2010 at 3:37 AM  

बहुत सुन्दर दोहे भैया. मन बासंती हो गया

सुनिए गिरीश पंकज को

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