महावीर वचनामृत-७
>> Sunday, February 7, 2010
(56)
धर्म, दया से शून्य जो, झगड़ालू औ दुष्ट।
मंदबुद्धि वह जानिए, कभी न हो संतुष्ट।।
(57)
जो मन से है शुद्ध वह, जीते यह संसार।
पवन सहारे नाव ज्यों, लग जाती है पार।।
(58)
कर्म अकेला भोगता, अंत काल इनसान।
कौन यहाँ अपना अरे, जो समझे नादान।।
(59)
माँस-अस्थि, मल-मूत्र से, तुच्छ बनी यह देह।
इसमें सुख ना खोजिए, ये क्षणभंगुर गेह।।
(गेह-घर)
(60)
गई आत्मा तो करे, अज्ञानी ही शोक।
और स्वयं की आत्मा, को पाए ना रोक।।
(61)
जन्म हुआ तो मृत्यु भी, तय है सबका वक्त।
इस $फानी संसार पर, क्यों इतना आसक्त।।
(62)
ध्यान-मग्न जो मनुज है, कुछ भी रखे न याद।
हर्ष-ईर्षा-मुक्त को, कैसाशोक-विषाद।।
(63)
धर्म-श्रवण बेकार है, गर श्रद्धा ना होय।
मोक्ष भला कैसे मिले, जब ना अंतस धोय।।
(64)
राग-द्वेष से दूर हो, करें सभी से प्यार।
समदर्शी जो बन गया, उसका बेड़ा पार।।
(65)
मोह-मैल से मुक्त हो, स्वच्छ भया उर-नीर।
वीतराग जीवन बना, सुंदर-पावन वीर ।।
3 टिप्पणियाँ:
aap dohe nahee kaaljayee itihaas rach rahe hain. mera sujhaw hai ki jain samaj ke bandhuon ko ise lipibaddh karake prakashit aur prasarit karna chahie.
amoolya/anupam dohe hain , main ramesh sharma ji ke sujhav ka samarthankarta hun aur yah karya yathasheeghra karayen. dhanyawaad.
मौसम लिखता प्रेमपत्र,
बांच रहा आकाश.
बोल पड़े खगवृन्द तब,
कुहू-कुहू मधुमास.
bahut hi .........shaandar
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