महावीर वचनामृत-९
>> Sunday, February 21, 2010
बहुत दिनों के बाद फिर हाज़िर हूँ. आपका स्वागत है.... कुछ् तकनीकी दिक्कतों के कारण मेरे प्रियजन अपनी टिप्पणियाँ नहीं दे पा रहे थे. उम्मीद है, अब समस्या का समाधान हो गया हो.
(77)
नर-नारी में भेद क्या, सब हैं जीव समान।
साथ-साथ चलते रहें, होगा नव निर्मान।।
(78)
नारी रहे समूह में, ब्रह्मचर्य बच जाय।
साधु अकेला ना रहे, दो हों तो सुखदाय।।
(79)
जो जीता वह जैन है, हिंसा से जो दूर।
मारे से मरना भला, जो सोचे वह शूर।।
(80)
अधर्म और अन्याय का, मत करना आहार।
नपा-तुला भोजन रहे, सस्नेह स्वीकार।।
(81)
सत्यग्राही जीवन बने, परिग्रहों से मुक्त।
मंगल ही मंगल रहे, जीवन सुख से युक्त।।
(82)
अर्हत, सिद्धों औ गुरू, साधू को परनाम।
पाप विनाशक ये सभी, हैं सच्चे सुख-धाम।।
(83)
वीतराग हे जगत गुरू, दे मुझको आशीष।
विरक्त रहूँ इस जगत से, पाऊँ तब जगदीश।।
(84)
कामजनित दुःख भी लगे, जैसे सुख की खान।
खुजली पाछे दुःख मिले, छोड़े ना इनसान।।
(85)
झूठा हरदम हो दुःखी, भयग्रस्त दिन-रात।
व्याकुल रहता हर घड़ी, खुल ना जाए बात।।
(86)
कुटिल वचन जो ना कहे, करे न कड़वे काज।
वही धार्मिक है सही, पूजे उसे समाज।।
5 टिप्पणियाँ:
लम्बे अन्तराल के बाद स्वागत है. सुन्दर वचनामृत.
वीतराग हे जगत गुरू, दे मुझको आशीष।
विरक्त रहूँ इस जगत से, पाऊँ तब जगदीश।।
ye to sabhi sarva kalik dohe hain. aapki lekhni ko salaam.
नर-नारी में भेद क्या, सब हैं जीव समान ।
साथ-साथ चलते रहें, होगा नव निर्मान ।।
बहुत सुन्दर भाव गिरिशजी ...
.... ऊर्जा मिल रही है !!
बहुत खूब, लाजबाब !
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