ग़ज़ल/ स्वारथ सधे तो रिश्ता...स्वारथ के सम्बन्ध हो गए
>> Tuesday, February 23, 2010
बहुत दिनों के बाद अचानक मन दुखी हुआ तो कुछ शेर बन गए, सो पेश-ए-खिदमत है. आसपास का परिवेश, लोगों की मानसिकता दुख देती है. आप किसी को कुछ बोल नहीं सकते, समझा नहीं सकते. दिमाग में भौतिकता इस कदर हावी है कि मत पूछिए. एक लेखक अपने मन की पीड़ा को शब्दों में ढाल कर खामोश रह जाता है. खैर, पेश है कुछ शेर. वैसे इसमे सुधार की भी गुंजाइश है, लेकिन फिलहाल तो सुधी पाठको तक पहुँचने का मोह संवरण नहीं कर पाया, सो हाज़िर हूँ--
दो ग़ज़ले...
(१)
स्वारथ सधे तो रिश्ता वरना यही लहू-सा रिसता है
तेरी-मेरी नहीं कहानी, घर-घर का यह किस्सा है
चलो दूर जा कर हम रह लें, यहाँ तो सौदेबाजी है
इसमें मेरा हिस्सा है 'बे' उसमें तेरा हिस्सा है
(पाठक ''बे''की जगह ''रे'' भी कर सकते हैं)
प्यार-मोहब्बत-अपनापन ये लगे कहानी पुस्तक की
अब तो नफ़रत, लूट-मार बस हर घर में यह चलता है
चलते-चलते जो गिर जाए उस पर हंसती है दुनिया
कौन उठाए, फुरसत किसको बिजी आदमी ऐसा है
कहने को इनसान हो गए पर वैसी तहजीब कहाँ
हैवानों-सा यहाँ आचरण इनसानों में देखा है
'जो मेरा है वो भी तेरा' अब कहता है कौन यहाँ
'तेरा जो है वो भी मेरा' खून-खराबा करता है
तेरी दौलत, मेरी दौलत करते-करते मरे सभी
अकल न आयी पंकज को सदियों से कोई कहता है
(२)
स्वारथ के सम्बन्ध हो गए
झूठे हर अनुबंध हो गए
आड़े-तिरछे शब्द आ गए
निर्वासित अब छंद हो गए
कौन कहेगा सत्य यहाँ जब
अधरों पर प्रतिबन्ध हो गए
कैसे छिपे गरीबी अपनी
जगह-जगह पैबंद हो गए
नफ़रत नींद उड़ा लेती है
आँखें हो कर अंध हो गए
प्यार बांटना था जिनको वे
हिंसा की ही गंध हो गए
पूजा सारी व्यर्थ हो गयी
हम अपने में बंद हो गए
पंकज कोई प्यार करेगा
हम पागल-मतिमंद हो गए
7 टिप्पणियाँ:
पंकज की दोनों रचनाएँ..बेहतरीन...भावपूर्ण ग़ज़ल..प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार
पहली के भाव समयानुकूल हैं दूसरी गजल ज्यादा पसंद आई मगर शायद इसमें काफिया दोष भी है
सच कहा..घर घर का किस्सा है..यथार्थ ही उकेरा है! बहुत उम्दा!
कटु सत्य ....
अंतर्मन से निकली हुई आवाज़ जैसी महसूस हुई आपकी ये रचना ....
wah pankaj ji, donon rachnayen lajawaab, dheron badhaai.
लाजवाब शेर ... बहुत कमाल की है दोनों रचनाएँ..बेहतरीन...भावपूर्ण ....
आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
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