महावीर वचनामृत-१०
>> Monday, February 22, 2010
(87)
केवल मैं ही श्रेष्ठ हूँ, मेरे उच्च विचार।
यह बोध सम्यक नहीं, मिथ्या यह आचार।।
(88)
जन्म, बुढ़ापा, रोग अरु, मरन दुःखों की खान।
दुःख ही दुःख चारों तरफ, केवल ज्ञान निदान।।
(89)
संगति सही न मिल सकी, भटका मैं चिरकाल।
मूढ़मति बन कर रहा, जग-जंगल विकराल।।
(90)
शत्रु से ज्यादा करे, राग-द्वेष नुकसान।
दूर रहे इनसे वही, जो है प्रज्ञावान।
(91)
जाना गर तू चाहता, भवसागर से पार।
तप-संयम की नाव में, हो जा तुरत सवार।।
(92)
जीव भला क्या देव भी, दुःखी रहे यह सत्य।
काम-वासना ग्रस्त जो, उसकी हो यह गत्य ।।
(93)
जब विराग उत्पन्न हो, सब कुछ है निस्सार।
आसक्तों को ही करे, आकर्षित संसार।।
(94)
राग-द्वेष जब मिट गए, हो समता उत्पन्न।
तृष्ना से ऊपर उठे, रहता मनुज प्रसन्न ।।
(95)
भाव-विरक्त हो कर मनुज, शोक-मुक्त हो जात।
जैसे जल में भी रहे, मुक्त कमल के पात।।
(97)
जो सत्कर्मों में उन्हें, करते देव प्रनाम।
संयम-तप ही धर्म है, ये मोक्ष के धाम।।
2 टिप्पणियाँ:
kya kahut girish ji, anmol vicharon ke saath, ati uttam shabd sinchit dohe. anupam.
behtreen,,,,
Post a Comment