''सद्भावना दर्पण'

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पृथ्वी...गीत, कविता, ग़ज़ल...

>> Thursday, April 22, 2010

आज पृथ्वी दिवस है. इस वक़्त पृथ्वी ही हमारी चिंता के केंद्र में होनी चाहिए, वरना हम सबकी हालत चिंतनीय हो जायेगी. हम लोग तो पृथ्वी को बर्बाद करके चले जायेंगे, मगर सोचिये, आने वाली पीढी को कितना कुछ झेलना पडेगा. हम लोगों ने तो अभी से झेलना शुरू कर दिया है. अभी तो ये ''अंगडाई'' है. आगे और तबाही है. अखबारों या ब्लागों में भी तरह-तरह के आंकड़ों से अटे-पड़े पृथ्वीविषयक लेख आप सब पढ़ ही चुके होंगे. डर भी लगा होगा. बहरहाल, मै अपने मन की बातें कविताओं के माध्यम से रख रहा हूँ. मन नहीं माना, सो एक गीतांश, एक नयी कविता और चंद शेर समर्पित हैं इस ''पृथ्वी-दिवस'' को. इसी भावना के साथ,कि मुझे अपनी बात कहनी है, सुने न सुने कोई मेरी पुकार-

/गीत
हरी-भरी इस धरती को हम,
और न बंटने देंगे.
धरती माँ है, पेड़ पुत्र हैं,
इन्हें न कटने देंगे..

अगर न होते पेड़ न होती,
ये सुन्दर हरियाली.
सूरज हमको झुलसा देता,
किस्मत होती काली.
धरा-पुत्र को माँ-सेवा से
कभी ना हटने देंगे..

हरी-भरी इस धरती को.....
/ कविता 
धरती और स्त्री दोनों के लिए हमारे पास 
एक ही शब्द है.. करुणा
दोनों के प्रति व्यवहार के लिए 
हमारे पास एक ही शब्द है...हिंसा 
कट रहे हैं हरे-भरे पेड़
जैसे मिटाई जा रही हैं औरतें...
कभी भ्रूण में, तो
कभी समूची देह
जिस दिन करुणा को 
रूपांतरित कर देंगे स्त्री के लिए
पृथ्वी अपने आप बचती जायेगी.
हमारी खुदगर्जी का आलम यह है कि
पेड़ हमें बिलकुल कीड़े-मकोड़े-से लगते हैं
जो लोग दौलत के लिए स्वजन को बेच देते है,
वे लोग  उतनी ही फुर्ती के साथ 
काट देते है पेड़ या
बेच देते है गाय. 
पेड़ों के हत्यारे 
समझ नहीं पाते अपना पाप 
और मूक धरती देखती रह जाती है चुपचाप 
बोल नहीं पाती 
लेकिन जैसे अब औरत चीख-चीख कर 
प्रतिकार कर रही है
पृथ्वी...तुम भी उठो...
चीखो न..
कभी सुनामी 
कभी ज्वालामुखी 
कभी भूकंप..
वैसे चीखती तो हो
प्रतिकार भी करती हो..
लेकिन आदमी तो आदमी है न
बहुत देर हो जाने के बाद चीज़ों को समझता है.
और तब तक 
उसके महाप्रयाण की बेला आ जाती है..
३/ ग़ज़ल...   
सचमुच सबकी माता धरती
अपनी भाग्यविधाता धरती

लूट रहा है किसकी अस्मत
मानव समझ न पाता धरती

काश कहीं तुम मिल जाती तो
अपना दर्द सुनाता धरती

तुझ में ही तो खो जाना है
तुझसे ऐसा नाता धरती

तुम हो माँ से बढ़ कर सबकी
रिश्ता यही सुहाता धरती

नदी, हवा के संग ये पर्वत
गीत तुम्हारे गाता धरती

उजड़ रहा हरियाला-आँचल
लालच ही उकसाता धरती

माँ के बाद नाम जुबाँ पे 
बार-बार बस आता...धरती      

9 टिप्पणियाँ:

Shekhar Kumawat April 22, 2010 at 1:51 AM  

उजड़ रहा हरियाला-आँचल
लालच ही उकसाता धरती

माँ के बाद नाम जुबाँ पे
बार-बार बस आता...धरती

wow !!!!!!!!

bahut khub


shkehar kumawat

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान April 22, 2010 at 2:05 AM  

dharti ki chintaaon me achchaa geet likha hai,badhai.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार April 22, 2010 at 3:22 AM  

गीत , कविता , ग़ज़ल …
तीनों रचनाएं धरती और समूची मानवता के प्रति आपकी भावनाओं और चिंताओं की अभिव्यक्ति है
साधुवाद !

Kusum Thakur April 22, 2010 at 5:46 AM  

धरती और स्त्री के प्रति आपकी चिंता जायज है ..........बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति !

Anonymous April 23, 2010 at 6:45 AM  

पृथ्वी दिवस पर गीत गजल और कविता ! बहुत सुंदर उपहार !धरती बचाएं ,पेड़ बचाए ,धरती माँ है हमे उसकी रक्षा करनी चाहिए ! बेहतर संदेश ! आभार !

कडुवासच April 23, 2010 at 7:50 AM  

...बेहद प्रसंशनीय!!!

सुनील गज्जाणी April 28, 2010 at 3:56 AM  

तीनो ही भाव युक्त है ,आज हर आदमी की पीड़ा हो सकती है , जाने आदमी अपने लोभ में अपने लालच में अपने अस्तित्व को क्यों ललकार रहा है,
गिरीश जी , बहुत बहुत आभार .!

Anonymous April 21, 2014 at 11:27 PM  

main aapki kavitaon ko radio se prasarit kardoon agar ijajat ho to mera manna hai ki aapko koi problem nahin...aapko hajar bar dhanyabad. aise bicharon ke liye .......Jagroop Singh Radio Bundelkhand 90.4 FM taragram orchha MP

girish pankaj April 22, 2014 at 6:31 AM  

aapko izazat hai bhai, dhanywaad . kavi ke naam ke sath rachnaa prastut ho to koi aapatti nahee ho saktee

सुनिए गिरीश पंकज को

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