रचने वाले ही बच जाते है मरने के बाद...चिड़िया, तुम कहाँ हो...?
>> Sunday, April 25, 2010
एक दिन जब हम नहीं रहेंगे
तब हरे-भरे पेड़ बन कर
लोगों को छाँव दे रहे होंगे या फिर फूल बन कर
बगरा रहे होंगे खुशबुएँ चारों ओर
पेड़ न लगाया होगा तो किसी प्यासे को पिलाया होगा पानी
भूखे को कभी दिल से परोसा होगा खाना
तब हम उसके दिल में रहेंगे ईश्वर की तरह
हम जब एक दिन नहीं रहेंगे इस असार-संसार में
तब भी हम रहेंगे
जैसे हमसे पहले के कुछ लोग अब तक बने हुए हैं.
पूरे ब्रह्माण्ड में न सही,
किसी एक कोने में ही सही
लेकिन रहेंगे ज़रूर क्योंकि हम मरते नहीं, ज़िंदा रहते है
छाँव बन कर स्मृतियों के देश में
किसी ने कांटे बोये वह भी याद रहता है सालोंसाल
किसी ने रोपे छाया देने वाले फलदार पेड़
लगाये फूल महकते हुए
किया कोई सृजन
सब को याद करती है प्रकृति..
किसी को नहीं भूलती कृतज्ञता
एक दिन जब हम नहीं होंगे तब
लोग कहेंगे देखो वह जो फूल है...
वह जो पेड़ है...
यह जो कृति है.. इनकी है.
आओ, नमन करो इनको.
रचा ही बचा रह जाता है दुनिया में
रचने वाले ही बच जाते है मरने के बाद.
हो सकता है कि एक दिन हम खो जाएँ
बिल्कुल जंगल के फूल की तरह
किसी को पता ही न चले
कहीं कोई खबर भी न छपे
लेकिन हम मरे तो फूल बन कर मरे...
इस बात को उस पेड़ पर बैठने वाली चिड़ियाएँ
अपने गानों में याद रखेगी
और पूरा जंगल हमारी मृत्यु पर अश्रु बहाएगा.
हम नहीं रहेगे तब भी दुनिया चलती रहेगी
लेकिन हम तस्वीरों की शक्ल में
टंगे रहेंगे स्मृतियों की दीवार पर
बूँद-बूँद झरते रहेंगे
झरोखे से आने वाली रोशनी की तरह
चिड़िया, तुम कहाँ हो...?
अभी कुछ दिन पहले
एक चिड़िया अक्सर हांफती-सी
इधर-उधर दिख जाती थी मुझे
पहले वह छाँव देखती थी
मगर उसे मिलती थी तपती हुई चट्टानें.
फिर वह देखती थी नदी
या तालाब
फिर ''सकोरे'' पर भी मार लेती थी एक नज़र
पिछली बार यही तो था पानी
नादान चिड़िया नहीं समझ पाई विकास को,
मनुष्य के निर्माण के फलसफे को
और चीं-चीं करने लगी
चिड़िया में अगर इतनी ही समझ होती तो
वह चिड़िया ही क्यों रहती
आदमी न हो जाती?
चिड़िया को चाहिए छाँव
चिड़िया को चाहिए पानी
'विकासशील मनुष्य' को चाहिए
तालाबो और पेड़ों की लाशों पर
आकाश छूने वाले मकान
अब वो चिड़िया नज़र नहीं आती आजकल
पता नहीं कहाँ है इन दिनों..
चिड़िया, तुम कहाँ हो...?
कहाँ हो चिड़िया तुम?
6 टिप्पणियाँ:
चिड़िया में अगर इतनी ही समझ होती तो
वह चिड़िया ही क्यों रहती
आदमी न हो जाती?
चिड़िया का चिड़िया रहना ही ठीक है अन्यथा इंसानों वाली विकृतियां आ जाती, छल रहित नहीं रह पाती
गिरीश भैया,
आभार कहना तो भुल ही गया था।
सुंदर कविताओं के लिए आभार
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
...प्रसंशनीय रचनाएं ...आभार !!!
"रचने वाले ही बच जाते है मरने के बाद…"
व्यष्टि से समष्टि बनने का आमंत्रण, वामन से विराट होने की यात्रा का वर्णन और नर से नारायण रूप में परिवर्तित होने की संभावना का दिग्दर्शन है आपकी प्रथम कविता में !
"चिड़िया, तुम कहाँ हो…?"
विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन से उपजी पीड़ा की अभिव्यक्ति है , उत्तरदायित्व समझने वाले एक सच्चे मानव की संवेदनशीलता है आपकी द्वितीय कविता में ।
दोनों कविताएं मुक्तछंद के नाम पर कुछ भी उबाऊ , अल्लम गल्लम लिखने वालों के लिए दर्पण है , प्रेरणा है ।
गिरीश पंकजजी , आपके हाथ में आकर लेखनी स्वय धन्य है । सरस्वती सदैव प्रसन्न रहे , ताकि हमें भी प्रसाद मिलता रहे ।
अस्तु…
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