मई दिवस पर विशेष ग़ज़ल/ मेहनत और पसीना...
>> Friday, April 30, 2010
एक मई.... मजदूर दिवस. श्रम की आराधना का दिन. पूजा का दिन. मै रायपुर श्रमजीवी पत्रकार संघ का दो बार अध्यक्ष रहा .अविभाजित मध्यप्रदेश में प्रांतीय महासचिव भी रहा. मैंने श्रमजीवी पत्रकारों के लिए लगातार संघर्ष किया. खतरे उठा कर अनेक आन्दोलन किये. उस वक्त के बिल्कुल नए पत्रकार मेरे साथ नारे लगाते हुए चलते थे. ख़ुशी होती है यह देख कर कि वे सब आज वरिष्ठ पत्रकार बन चुके है. समय जाते क्या देर लगती है.? सच कहूं, तब लगता था, कि हम मेहनतकश पत्रकार समाज के लिए कुछ कर रहे है, तो उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलनी चाहिए. लेकिन उस दौर में मालिको के दलाल सक्रिय रहते थे, और आन्दोलन की धार को भोथरी करने की कोशिश करते थे. फिर भी जब तक मेरे साथ कुछ जुझारू साथी थे, ऐसा कुछ नहीं हो पाया. तब पत्रकार संघ मतलब श्रमजीवी पत्रकारों के लिए हर वक्त संघर्ष के लिए तैयार रहने वाला मोर्चा लगता था. संघर्ष में ही मेरी रूचि थी, इसलिए कभी प्रेस क्लब का पदाधिकारी बनाने में रूचि ही नहीं दिखाई. चाहता तो वहा भी जा सकता था, लेकिन नहीं गया, क्योंकि प्रेस क्लब की भूमिका दूसरी है. लेकिन पत्रकार संघ मतलब सीधे-सीधे ''जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ''. इसलिए वही रास्ता चुना. खैर, यह सब अब अतीत की मधुरिम यादें हैं. आज अचानक एक मई मजदूर दिवस पर पुराने दिन याद आ गए. आज भी श्रमजीवी पत्रकारों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. कुछ अखबारों में उच्चस्तर पर अच्छे वेतनमान मिल रहे हैं लेकिन जो लोग सचमुच अखबार के असली नायक है, उन श्रमजीवियों को अभी भी सम्मानजनक वेतन नहीं मिल पाता. यह दुःख की बात है कि दूसरों के लियेआवाज़ उठाने वाला श्रमजीवी पत्रकार अपने शोषण पर ही मौन रह जाता है. विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ, कि मै ऐसा कभी कर नहीं पाया, इसलिए अनेक अखबारों में रहा और लड़ते -लड़ते एक दिन बाहर कर दिया गया, मेरे समकालीन अनेक घटनाओं के गवाह रहे हैं. मै आज भी वैसा दौर चाहता हूँ. वैसा ही पत्रकार संघ. अब मै संगठन से दूर हूँ. मेरी अपनी स्वतन्त्र पत्रकारिता की राह है. लेकिन रास्ता श्रमजीवियों वाला ही है. अब रोज़ गड्ढा खोदो और पानी निकालो. पहले सेठों की मजदूरी की, अब अपने लिए करते है. खैर..क्रांतिकारी कवि पाश के शब्दों में कहूं तो ''हम लड़ेंगे साथी'' क्योंकि लड़ना ही हमें मनुष्य बनाता है. मेरा एक शेर है ''देख कर के जुल्म जब भी चीखता है/ आदमी तब खूबसूरत दीखता है''.कभी यह पूरी ग़ज़ल भी पेश करूंगा. फिलहाल अभी तो अचानक मन भावुक हुआ तो कुछ शेर बन गए हैं इन्हें ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, केवल ''ईमानदार'' श्रमजीवी पत्रकारों और दुनिया के तमाम मेहनतकश सच्चे मजदूरों के लिए-
पसीना-ग़ज़ल
मुफ्तखोर सेठों का हँसना उनका क्या
मेहनत और पसीना अपना उनका क्या
हमने गढ़ी इमारत लेकिन क्या बोलें
फुटपाथों पर हमको रहना उनका क्या
इक दिन मेहनतकश की दुनिया भी होगी
रोज़ देखते हैं ये सपना उनका क्या
दिन भर तोड़ा पत्थर लेकिन पाया क्या
टूटन, कुंठा, आँसू बहना उनका क्या
खाई दर खाई ये बढ़ती जाती है
हमको ही पड़ता है सहना उनका क्या
दौलत उनके पास पडी है शोषण की
अपने हिस्से केवल छलना उनका क्या
अन्धकार फैला है इसे मिटाना है
हम हैं दीपक हमें है जलना उनका क्या
जितनी मेहनत की है उतना मिल जाये
एक यही है नारा अपना उनका क्या
हर ख़राब सूरत भी पंकज बदलेगी
इन्कलाब का है ये कहना उनका क्या
11 टिप्पणियाँ:
जब थके आदमी ढोता हूं
सोचता हूं, उदास होता हूं
वक्त थोड़ा सा गुदगुदाता है
खूब हंसता हूं, खूब रोता हूं।
यकूम मई पर आपकी अच्छी रचना को हार्दिक बधाई। मजदूर दिवस जिंदाबाद।
दौलत उनके पास पडी है शोषण की
अपने हिस्से केवल छलना उनका क्या
बहुत सुन्दर
श्रम करने वाले छले गये हैं और शोषण ही उनके हिस्से में है
shram divas pe ek vicharottejak rachna...ati sundar...
मुफ्तखोर सेठों का हँसना उनका क्या
मेहनत और पसीना अपना उनका क्या
-सिर्फ गज़ल पढ़ी..आनन्द आ गया..फिर आते हैं.
दुनिया बनाई देखो उसने
फ़िर भी वह मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा
मेरे देश का मजदूर था
श्रमिक दिवस पर देश के श्रमिको का अभिनंदन करता हुँ। जिन्होने अपने खून पसी्ने से सींच कर इस धरा को वसुंधरा बनाया।
भावपूर्ण ग़ज़ल..हर पंक्ति एक सवाल उठाती है..शोषित मजदूरों की आवाज़ को बुलंद करती एक बढ़िया रचना..धन्यवाद पंकज जी.
...अदभुत भाव ... अदभुत सफ़र ... अदभुत अभिव्यक्ति !!!
गिरीश पंकजजी
रोचक धारावाहिक की अगली कड़ी के इंतज़ार की तरह आपकी अगली पोस्ट का इंतज़ार रहने लगा है …
शुक्र है आज भी निराश नहीं होना पड़ा ।
"अन्धकार फैला है इसे मिटाना है
हम हैं दीपक हमें है जलना उनका क्या"
बहुत ख़ूब !
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 01/05/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
दिन भर तोड़ा पत्थर लेकिन पाया क्या
टूटन, कुंठा, आँसू बहना उनका क्या
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मजदूरों के जीवन को सच्ची तौर पर बयां करती रचना
मजदूर दिवस पर सार्थक
उत्कृष्ट प्रस्तुति
मजदूरों को लाल सलाम
विचार कीं अपेक्षा
आग्रह है मेरे ब्लॉग का अनुसरण करें
jyoti-khare.blogspot.in
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
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