''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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ग़ज़ल/ लेकिन 'सदा' सुनायी दे.

>> Saturday, May 1, 2010

ग़ज़ल के हर शेर अपनी बात कहते हैं, इसलिए आज कुछ न कहते हुए पेश है मेरी बिल्कुल ही नई ग़ज़ल...मेरे बेहद अन्तरंग हो चुके सुधी पाठको एवं चिट्ठाकारों के लिए....

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कितनी दूर चला आया हूँ लेकिन सदा सुनाई दे.
आँखें जब भी बंद करुँ तो चेहरा एक दिखाई दे 

दिल से दिल के तार जुड़े हैं टूट न जाएँ भूले से
दिलवालों को मेरे मौला कभी न तू रुसवाई दे

प्यार-महब्बत के किस्से तो अब भी सुनते रहते हैं
तन से उठकर मन तक आये ऐसी कोई वफाई दे

कब तक धोखा छिप सकता है यहाँ पता चल जाता है
तुझको मैं पहचान गया हूँ तू ना मुझे सफाई दे

होंगे और खुदा दुनिया में उनसे क्या लेना-देना 
मैं तो इंसां ही काफी हूँ मुझको नहीं खुदाई दे.

एक यही ख्वाहिश है मेरी दौलत वाली दुनिया में
इन हाथों को ऊपरवाले मेहनतभरी कमाई दे 

कदम-कदम पर हर झूठों ने तोड़ दिया सच्चाई को
हार न पाए हर ज़ालिम से मुझको वो सच्चाई दे

दौलत ही अब पैमाना है 'पंकज' रिश्तेदारी का 
दिल से जुड़ता है जो रिश्ता मुझको वही सगाई दे  

(सदा-आवाज़, सगाई-नाता, सम्बन्ध) 

15 टिप्पणियाँ:

Ra May 1, 2010 at 8:25 AM  

एक शानदार प्रस्तुति ...लाजवाब

http://athaah.blogspot.com/

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" May 1, 2010 at 8:42 AM  

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है ...

होंगे और खुदा दुनिया में उनसे क्या लेना-देना
मैं तो इंसां ही काफी हूँ मुझको नहीं खुदाई दे.

क्या बात है !

ब्लॉ.ललित शर्मा May 1, 2010 at 8:44 AM  

कब तक धोखा छिप सकता है यहाँ पता चल जाता है
तुझको मैं पहचान गया हूँ तू ना मुझे सफाई दे

गिरीश भैया-दुनिया की सच्चाई को दिल से आपने सामने रख दि्या।

आभार

M VERMA May 1, 2010 at 8:57 AM  

हार न पाए हर ज़ालिम से मुझको वो सच्चाई दे
यही सच्चाई तो कलम को धार देती है
बहुत सुन्दर

विनोद कुमार पांडेय May 1, 2010 at 9:29 AM  

भावनाओं का बेहतरीन प्रवाह...इस बढ़िया ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

दिलीप May 1, 2010 at 9:48 AM  

waah sirji waah...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार May 1, 2010 at 12:36 PM  

गिरीश पंकजजी
बिल्कुल ही नई ग़ज़ल , नई रचना नेट पर डाल देना ढंग के लेखक के लिए सुरक्षित है क्या ?

* ईमानदार रचना में रचनाकार का चरित्र ज़रूर उभर कर बोलता है , जैसे इस शे'र में
"एक यही ख्वाहिश है मेरी दौलत वाली दुनिया में
इन हाथों को ऊपरवाले मेहनत भरी कमाई दे"

* लेकिन गिरीशजी,क्या "वफ़ाई " लफ़्ज़ जायज है?
शुभकामनाओं के साथ …
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Anonymous May 1, 2010 at 7:17 PM  

प्यार-महब्बत के किस्से तो अब भी सुनते रहते हैं
तन से उठकर मन तक आये ऐसी कोई वफाई दे !!!
कितनी खूब सुरत है ये गजल !तन मन का परिष्कार करती हुई होठों पर आ टिकती है ! बहुत बहुत बधाई !

Shekhar Kumawat May 1, 2010 at 9:16 PM  

shandar

girish pankaj May 1, 2010 at 11:21 PM  

प्रिय राजेंद्र भाई,
नेट पर अपनी नयी रचना देते वक्त डर तो लगता है.कोई बड़ा ही शातिर होगा वह चुरा भी सकता है लेकिन सोचता हूँ कि एक रचना के कितने गवाह भी होते है, इसलिए किसी ने चोरी की तो उसकी फजीहत भी हो सकती है. आप बताएं कि समाधान क्या है. अब आपकी दूसरी बात. ''वफाई'' पर आपका सवाल जायज है. आप भी शेरोशाइरी में गहरी रूचि रखते है. मैंने आपकी रचनाये देखी है. यह शेर लिखने के बाद मैं भी सोच रहा था, कि क्या प्रयोग सही है. फिर मुझे ध्यान आया कि हम लोग ''बेवफाई'' का प्रयोग तो करते ही है. तो ''वफाई' का क्यों नहीं कर सकते. ''वफ़ा'' से ''वफाई'' बना ही है. ''वफ़ा'' करने का मतलब है जो ''वफाई ''करे. इसलिए मैंने कहा ''तन से उठकर मन तक आये ऐसी कोई वफाई दे''. यानी 'ऐसी कोई ''ईमानदारी'' या ''सुशीलता'' दे'. वफ़ा का मतलब ''पूर्णता'' और ''सुशीलता'' भी होता है. 'वफादार' का मतलब होता है 'ईमानदार' और 'सच्चा'. वफादारी मतलब वफ़ा करने से है.तो मैंने सोचा क्यों न 'वफाई'' का प्रयोग लिया जाये. जैसे ''सफाई'', ''कमाई '', ''हंसाई'',''रुलाई''. लेखक हिम्मत करके शब्द-प्रयोग कर सकता है. बहुत-से लेखकों ने ऐसा किया है.लेखक शब्द भी बनाते है, गढ़ते है. तोड़ते भी है. कविता में कवि कुछ छूट ले लेता है. उसी दृष्टि से यह प्रयोग है. प्रयोग कितने मान्य होते है, ये अलग बात है. आपके मन में जो भाव आया, बिल्कुल वैसा मैंने भी सोचा था, फिर मैंने देखा कि ''वफाई'' के प्रयोग से शेर के वज्न में कोई कमी नहीं आ रही है और अर्थ भी संप्रेषित हो रहा है. लोग समझ भी रहे है. ''बेवफाई'' से भी लोग भलीभांति परिचित हैं इसलिए शायद चल जाये. 'रिस्क' लेकर मानने इस शब्द का प्रयोग किया था. फिर भी इस पर सोच रहा हूँ. एक-दो उस्ताद शाईर जो मेरे मित्र है, उनसे भी सलाह-इस्लाह करूंगा. अच्छा लगा कि आपने सवाल उठाया. यही सब चीज़े हमारी रचनात्मकता को निखारती हैं.

अर्चना तिवारी May 2, 2010 at 2:00 AM  

गिरीश जी आपकी ग़ज़ल बहुत खूब बनी है...'वफ़ा' का नया प्रयोग 'वफाई' अच्छा लगा..दरअसल शब्दों का आविष्कार ऐसे ही हुआ होगा निरंतर धीरे-धीरे

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार May 2, 2010 at 3:44 AM  

सुप्रिय गिरीशजी,
बहुत अच्छा लगा ।
… और जो मात्र लकीर का फ़कीर रचनाकार नहीं है , लुगत से बाहर के लफ़्ज़ वही देगा , यह भी तय है ।
निश्चित रूप से वफ़ाई का अर्थ तो संप्रेषित हो रहा है । आपसे सहमत हूं । हालांकि मौका मिलने पर वरिष्ठ / गुणीजनों से मेरी भी इस संदर्भ में बात होगी कभी ।
मेरी तो ब्लॉग / साइट्स (पत्रिकाओं )के संपादकों से अपनी रचनाओं की सुरक्षा को लेकर जिरह-बहस होती रहती है । कुछेक की नाराज़गी भी मोल लेता हूं । …लेकिन, आख़िर हमारी रचनाएं चौरस्ते पर गिरा हुआ सिक्का कैसे बन जाने दें ?
संवाद जारी रहे … … …
- राजेन्द्र स्वर्णकार

वाणी गीत May 2, 2010 at 5:41 AM  

मैं तो इंसां ही काफी हूँ मुझको नहीं खुदाई दे..
बस इंसान ही बने रहे ...वही काफी है ...

हार ना पाए वो सच्चाई दे ...
शुभ विचार ...
अच्छी ग़ज़ल ...

शिवम् मिश्रा May 2, 2010 at 10:17 AM  

बेहद उम्दा ग़ज़ल है ........पंकज भाई !
बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

संजय भास्‍कर June 2, 2010 at 8:06 PM  

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

सुनिए गिरीश पंकज को

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