''सद्भावना दर्पण'

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दो ग़ज़लें / काले धंधे में डूबा है.... जितना सुख हिस्से में आया..

>> Monday, May 3, 2010

मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है,यह देख कर कि, कुछ लोग मुझसे जुड़ते जा रहे है. ये ''गिव एंड टेक'' वाले नहीं हैं. ये सब दिल से जुड़ रहे हैं. ये भले लोग है. इनमे विवेक है. भले-बुरे की समझ है. यही चाहता रहा हूँ कि मुझे कम लोग ही मिलें मगर वे सज्जन हों, उनका मन निर्मल हो. जब मेरी रचना कोई दिल में उतारता है तो सृजन की सार्थकता लगती है. मै उनसे कुछ सीखता हूँ, कोई मुझसे कुछ सीख पाए, ऐसी प्रतिभा मेरे पास नहीं है, लेकिन मुझसे जुड़ने वालों से मै बहुत कुछ सीखता रहता हूँ. मेरे चाहने वालों को मै अपनी आत्मा में बसाता हूँ. ''अच्छे पाठकों पर'' कभी अपना लेख भी आप तक पहुचाऊंगा. फिलहाल दो ग़ज़ले पेश कर रहा हूँ. देखें...

(१)

काले धंधे में डूबा वो उजियारे की बात करे
हत्यारा ही भोला बनकर हत्यारे की बात करे

चेहरे से अब हत्यारे को समझ नहीं हम पाएंगे
वो तो ईश्वर-अल्ला उनके जयकारे की बात करे

धरती को तो देख न पाया घर से बाहर गया नहीं
बैठे-बैठे सूरज-चंदा और तारे की बात करे

कविता दिल से बनती है वे दिमाग से लिखते हैं
अब तो भरे पेटवाला ही भुखियारे की बात करे

भला आदमी है बेचारा हरदम ठोकर खाता है
कोई तो इस बस्ती में उस बेचारे की बात करे

सच कहने वाले तो अक्सर क़त्ल हुए हैं पहले भी
पंकज उनका ही विरसा है अंगारे की बात करे

(२)

जितना सुख हिस्से में आया.. काफी है
मन को तूने ये समझाया.. काफी है  

अपनों से ज्यादा उम्मीदें मत रखना 
जिसने जितना साथ निभाया.. काफी है

हम तो सोच रहे थे वो क्या आयेगा
बहुत दिनों के बाद वो आया.. काफी है

दौलत तेरे हाथ कभी ना आ पाई
लायक बेटा एक कमाया.. काफी है 

सुबह खुली है आँख शाम मुंद जायेगी
जिसने भी इस सच को पाया..काफी है 

7 टिप्पणियाँ:

SANSKRITJAGAT May 3, 2010 at 12:35 AM  

सुबह खुली है आँख शाम मुंद जायेगी
जिसने भी इस सच को पाया..काफी है


really inspiring poem

ब्लॉ.ललित शर्मा May 3, 2010 at 1:07 AM  

कविता दिल से बनती है वे दिमाग से लिखते हैं
अब तो भरे पेटवाला ही भुखियारे की बात करे

कैसी विडम्बना है जिसने भूख धूप देखी नही वह वातनुकूलित कमरों में बैठकर भुखियारे की भूख मिटाने की योजना बना रहे हैं।

बहुत खुब गिरीश भैया-व्यवस्था पर करारी चोट है।

राम राम

Ra May 3, 2010 at 1:57 AM  

pasand aayi

शिवम् मिश्रा May 3, 2010 at 2:28 AM  

बेहद करारी चोट करी है व्यवस्था पर............. बहुत बहुत बधाइयाँ !

M VERMA May 3, 2010 at 5:41 AM  

सुबह खुली है आँख शाम मुंद जायेगी
जिसने भी इस सच को पाया..काफी है
सच तो यही है

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार May 3, 2010 at 6:47 AM  

दोनों ग़ज़लों ने प्रभावित किया ।

क्या ख़ूब कहा है…
"कविता दिल से बनती है वे दिमाग से लिखते हैं
अब तो भरे पेटवाला ही भुखियारे की बात करे"

मेरा भी अंदाज़े-बयां शामिल है इस शे'र में…
"सच कहने वाले तो अक्सर क़त्ल हुए हैं पहले भी
पंकज उनका ही विरसा है अंगारे की बात करे"

अपने आप में संपूर्ण दर्शन भी है यह शे'र…
"दौलत तेरे हाथ कभी ना आ पाई
लायक बेटा एक कमाया.. काफी है"
सबूरी हो तो ऐसी …
"अपनों से ज्यादा उम्मीदें मत रखना
जिसने जितना साथ निभाया.. काफी है"

अच्छे सृजन की प्यास फिर से यहीं खींच कर लाएगी ,
यह जानते हुए विदा लेता हूं…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
http://shabdswarrang.blogspot.com

संजय भास्‍कर June 2, 2010 at 8:08 PM  

. बहुत बहुत बधाइयाँ !

सुनिए गिरीश पंकज को

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