स्वारथ जब दिमाग पर छाया रिश्ते टूट गए...
>> Friday, May 7, 2010
इस क्रूर समय में अच्छे लोगों का जीना कठिन हो गया है, बाहर की क्या बात करुँ , अब तो घर-घर में नफ़रत और अलगाव का मंज़र नज़र आने लगे हैं. दुःख होता है देख कर, जब एक भाई दूसरे भाई की जान लेने पर आमादा हो जाता है,क्योंकि उसे संपत्ति में बंटवारा चाहिए. यह दौलत कितनी खतरनाक होती है कि दो दिल, दो खून अलग-अलग हो जाते है. अरबपति अम्बानी से लेकर अनेक आम मध्यमवर्गीय परिवार में भी आर्थिक मामलों में कोई संतुष्टि नहीं दिखती. एक भाई दूसरे भाई के लिए त्याग क्यों नहीं कर पाता..? क्या धन-दौलत में इतनी ताकत होती है, कि वह सगे लोगों को भी पराया बना देता है. हम भाई सौभाग्यशाली है कि अभी तक प्रेम से ही रहते है, और हमारे सामने ऐसी कोई नौबत भी नहीं आने वाली. आज की पोस्ट लिखने का कारण है. कल मै बहुत दिन बाद एक किराना दूकान पर समान लेने गया. बारह फुट चौड़ी दूकान को दो भाई मिल कर संचालित करते थे. कल देखा तो दंग रह गया कि वही दूकान दो भागों में बंटी हुई है. छः-छः फुट की दूकान...देख कर झटका-सा लगा. मैंने फ़ौरन नाराज़गी व्यक्त की कि ''ये क्या है भाई..?तुम लोग साथ-साथ नहीं रह सकते थे?'' बड़े भाई ने संकोच के साथ कहा-''क्या करे साब, छोटा नहीं माना.'' मैंने छोटे को देखा. वह मौन था. मुस्कराता रहा, बस. मैं क्या करता. कोई पंचायत तो था नहीं कि फैसला सुना देता कि कल से दोनों भाई एक साथ रह कर व्यवसाय करेंगे. दुखी मन से लौट आया. कल से ही सोच रहा था, कि इस विघट्नवादी-अलगाववादी प्रवृत्तियो पर कुछ लिखूंगा. यह जानता हूँ, कि मेरे लिखने से कुछ होने से रहा. हो सकता है उलटे लोग नाराज़ भी हो जाये, यह भी हो सकता है कुछ लोगों को मेरी बात ठीक लगे. बहुत संभव है कुछ भाइयों वे ऐसे बंटवारे का दर्द भोगा भी हो. बंटवारा घर का हो चाहे देश का, दुखद है. देश तो फिर भी भौगोलिकता के कारण स्वीकार कर लिए जाते हैं, लेकिन घर का टूटना आत्मा को छलनी करना होता है. दो लोग अलग होते है तो केवल दो लोग ही अलग नहीं होते, कितने लोग प्रभावित हो जाते है. प्रेम, सद्भावना, अपनापन सब ख़त्म हो जाता है. हम पशु बन कर जीते है, बस...खैर इस पर जितना लिखा जाये, कम है, अपनी भावनाओं को आज ग़ज़ल नहीं, एक नवगीत के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहा हूँ.
नवगीत
स्वारथ जब दिमाग पर छाया,
रिश्ते टूट गए..
घर-घर में बाज़ार घुस गया,
बन गए सब व्यापारी.
ऐसी आंधी चली बिखर गयी,
हरी-भरी सब क्यारी.
साथ-साथ चलने वाले क्यों
पीछे छूट गए..
दूर किताबों से जब थे हम,
तब था कितना प्यार.
जैसे-जैसे पढ़ना सीखा,
बिखर गया घरबार.
पढ़े-लिखे कुछ लोग स्वयं के,
घर को लूट गए...
धीरे-धीरे हरा-भरा 'यह,
बाग़' उजड़ता लागे.
समझ न पाऊँ इस तेज़ी से,
लोग कहाँ..क्यूं भागे?
खुशबू के ये देव अचानक,
क्यूं कर रूठ गए.स्वारथ जब दिमाग पर छाया,
रिश्ते टूट गए..
11 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन ! लाजवाब रचना है ...
ये सच है कि लोग पढ़ना लिखना सीख कर और स्वार्थपर हो गए हैं ...
चाहे गीत हो, गजल हो अथवा नई कविता आप सब कुछ ऐसा लिखते हैं जो शाश्वत है। बेहतरीन लाजवाब रचना। आपको बधाई।
गिरीशजी
मानवीय संवेदनाओं से प्रेरित होकर सृजित प्रस्तुत नवगीत बहुत अच्छा लगा । लेकिन सच कथने वालों से लोग ख़ुश कम , नाराज़ अधिक होते हैं , यह भी सच है।
"हम भाई सौभाग्यशाली है कि अभी तक प्रेम से ही रहते है, और हमारे सामने ऐसी कोई नौबत भी नहीं आने वाली." ईश्वर आप जैसे परिवारों को नज़र से बचाए ।
शस्वरं
-राजेन्द्र स्वर्णकार
स्वारथ जब दिमाग पर छाया,
रिश्ते टूट गए..
बहुत सुन्दर सामयिक रचना
lajawaab rachna sahej kar rakhne layak...
दूर किताबों से जब थे हम,
तब था कितना प्यार.
जैसे-जैसे पढ़ना सीखा,
बिखर गया घरबार.
पढ़े-लिखे कुछ लोग स्वयं के,
घर को लूट गए..
पंकज जी कितनी खूबसूरती से समाज की सच्चाई बयाँ कर दी आपने...बहुत भावपूर्ण रचना धन्यवाद
दूर किताबों से जब थे हम,
तब था कितना प्यार.
जैसे-जैसे पढ़ना सीखा,
बिखर गया घरबार.
अच्छी पंक्तिया ...बढ़िया रचना
बहुत बढ़िया रचना !! आपको बधाई।
गीत भी सही है और यह चिंतन भी ।
पंकज जी कितनी खूबसूरती से समाज की सच्चाई बयाँ कर दी आपने.
बहुत भावपूर्ण रचना धन्यवाद
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