''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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सुन्दर-प्यारे बस्तर में ये हिंसा भरे नज़ारे कब तक ..?

>> Monday, May 17, 2010

बस्तर में आज फिर नक्सलियों ने खूनी इतिहास लिखा. ३० से ज्यादा लोग एक धमाके में ही कल-कवलित हो गए. समझ में नहीं आता कि क्रांति की किस किताब में यह लिखा गया है, कि लोगों की जानें लो, तभी इन्कलाब आयेगा. यह बड़ा भ्रम है. जैसे कुछ लोग देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि देते है. मै समझ नहीं पाता कि ये कैसी देवी है जो किसी जीव की बलि से खुश हो सकती है. कभी नहीं. बस्तर में भी क्रांति-देवी को बलि चढ़ाने का काम कर रहे है नक्सली, लेकिन वे मुगालते में है. अपने ही भाइयों की हत्याएं करके वे केवल अपने खिलाफ नफ़रत ही पालने का काम कर रहे हैं.यह ध्यान रहे, कि हिंसा अंततः हिंसक को ही खाती है.नक्सली समझ लें और आत्म-मंथन करें. प्रेम से रहें, मुख्यधारा में आने की कोशिश करे. लोगों की बददुआएं न लें. मन की कुछ बाते कविता की शक्ल में भी प्रस्तुत है.
   
हत्या, चीख-पुकारें कब तक ?
ख़ू से सनीं बहारें कब तक ?

अरे अमन के नारे कब तक
जीएंगे हत्यारे कब तक? 

सुन्दर-प्यारे बस्तर में ये
हिंसा भरे नज़ारे कब तक
 
ये हैं माओवाद कहाँ का 
ये खूनी फौवारे कब तक?

इन्क्लाब ले कर आओगे 
लाशों के ही सहारे कब तक?

खूनी नक्सलवाद भयावह
बोलो सत्ता हारे कब तक

रोती है मानवता देखो
हँसेगे पापी सारे कब तक?

हिंसक भरे इशारे कब तक?
रहेंगे हम बेचारे कब तक?

बंदी ये उजियारे कब तक?
फिरेंगे मारे-मारे कब तक?

कोई एक दीप तो बारो 
रहे यहाँ अंधियारे कब तक?

शर्म करो ओ हिंसकवादी
सुनोगे उफ़ चित्कारें कब तक?

रो-रो कर अब बुरा हाल है
बिगड़ी कोई सँवारे कब तक?

हाय विधाता क्या नसीब है
रहे टूटते तारे कब तक ?

चलो करे कूच बस्तर को 
बचेंगे ये हत्यारे कब तक?

क्रांति नहीं है केवल ह्त्या
लगेंगे झूठे नारे कब तक?

''बुद्धिजीवी'' ह्त्यारों की ही 
और करें जय-कारे कब तक

शर्म, शर्म, अब शर्म करो तुम
ख़ून सने चौबारे कब तक ? 

मांएं रोती, बहन रो रही,
रोएंगे घर-द्वारे कब तक?

आखिर ये हत्यारे कब तक?
फिरेंगे मारे-मारे कब तक?
हत्या, चीख-पुकारें कब तक 
ख़ू से भरी बहारें कब तक ?

6 टिप्पणियाँ:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार May 17, 2010 at 11:29 AM  

सुन्दर-प्यारे बस्तर में ये
हिंसा भरे नज़ारे कब तक

गिरीशजी ,
ज्वलंत प्रश्नों को काव्य के स्वर से सामने रखा है ।
निदान भी सुझाया है …
चलो करे कूच बस्तर को
बचेंगे ये हत्यारे कब तक?

बेबसी भी है , करुणा भी है , क्रोध भी है । सारे भाव नासूर बनते जा रहे एक मसले को ले कर …
कवि जाग्रत होता है तो हल भी निकलता है ।
ईश्वर आपकी वाणी ज़रूर सुन रहा होगा …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

शिवम् मिश्रा May 17, 2010 at 12:10 PM  

इन सवालो का जवाब कौन देगा ??

राजीव रंजन प्रसाद May 17, 2010 at 6:33 PM  

''बुद्धिजीवी'' ह्त्यारों की ही
और करें जय-कारे कब तक

इस सवाल का उत्तर मिलने से भी बहुत सी समस्यायें हल हो जायेंगी। लाल आतंकवाद को कुचलने के मिये अब सेना को बैरकों से निकलना ही होगा।

रंजना May 18, 2010 at 5:14 AM  

सार्थक सामयिक उद्वेलित करती बहुत ही सुन्दर रचना...
आपके स्वर में हम सभी अपने स्वर मिलाते हैं...

शरद कोकास May 19, 2010 at 10:22 AM  

हम भी उम्मेद कर रहे है कि इन सवालो का जवाब मिलेगा ।

कडुवासच May 19, 2010 at 7:23 PM  

...बेहद प्रसंशनीय !!!

सुनिए गिरीश पंकज को

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