''अब तक की सबसे लम्बी ग़ज़ल''..
>> Friday, May 21, 2010
जी हाँ, मेरे द्वारा कही गयी अब तक की सबसे लम्बी ग़ज़ल.. इससे भी लम्बी ग़ज़ल किसी न किसी ने ज़रूर कही होगी. उसकी मुझे जानकारी नहीं है.न में कोई कीर्तमान ही रचने का दावा कर रहा हूँ. मैं तो केवल अपना एक सुख आप तक पहुँचना चाहता हूँ. .कभी-कभी कोई सुखद संयोग बन जाता है.पिछले महीने किसी एक ब्लॉग में मैंने एक ग़ज़ल पढ़ी-''कौन चला वनवास रे जोगी'' अचानक मन में आया कि इस ज़मीन पर शायद कुछ शेर कहे जा सकते है. बस, लिखने बैठ गया. शेर बनते गए...बनते गए. रुका तो देखा कि चमत्कार-सा हो गया. ''छत्तीसगढ़''' में रहने वाले इस कवि के ''छत्तीस'' शेर बन गए. अपने जीवन की सबसे लम्बी ग़ज़ल कह दी मैंने. इस हेतु आभारी हूँ उस ब्लॉग का जिसमे मैंने वो ग़ज़ल पढ़ी थी.(दुर्भाग्यवश उस ब्लॉग का अभी नाम ही याद नहीं आ रह है. उस ब्लॉग का जिक्र मै ज़रूर करूंगा. उस ब्लोगर बन्धु को मैंने संभवतः ११-१२ अप्रैल को पत्र भी लिखा था) ग़ज़ल लिख लेने के बाद 'ब्लॉग-पत्रिका' ''आज की ग़ज़ल'' देखी तो वहा ''कौन चला...' का तरही मिसरा दिया था. मैंने अपनी ग़ज़ल के कुछ शेर 'आज की ग़ज़ल' को भी भेज दिए.(संयोग है कि इस ब्लॉग में ग़ज़ल आज ही छपी.सुधी पाठक इस ब्लॉग को भी ज़रूर देखें) कुछ शुद्धतावादी ''स'' और ''श'' एक साथ उपस्थिति को ग़लत मानते है, (जैसे ''नाश'' के साथ ''आस'', 'पास'' आदि) लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि ऐसा होने पर भी ग़ज़ल के वज्न में कोई अंतर नहीं पड़ता. मेरी ग़ज़ल में ''श'' वाले कुछ शेर भी है, लेकिन इन्हें मै अलग से दे रहा हूँ. उम्मीद करता हूँ,कि ''मेरे'' सुधी पाठक इस तरही ग़ज़ल को भी प्यार देंगे. चूंकि ३६ शेर है, इसलिये एक-एक शेर को एक-एक पंक्ति में ही दे रहा हूँ ताकि ग़ज़ल बहुत लम्बी न लगे और ज्यादा जगह भी न घेरे. तो हाज़िर है....
किनसे रक्खे आस रे जोगी / टूटा हर विश्वास रे जोगी पतझर से डरता है काहे / आयेगा मधुमास रे जोगी
जीत ले सबका दिल बढ़कर के / बन जा खासमख़ास रे जोगी
रोती है ये सारी नगरी / ''कौन चला बनवास रे जोगी''
है कमजोर बड़ा वो इंसां / जो है सुख का दास रे जोगी
कहाँ-कहां भटकेगा पगले / कर ले मन में वास रे जोगी
अच्छे लोग भी हैं बहुतेरे / देख तो अपने पास रे जोगी
यह दुनिया तो मेरी अपनी / है सुन्दर अहसास रे जोगी
यह दुनिया तो मेरी अपनी / है सुन्दर अहसास रे जोगी
सुख-दुःख दोनों एक सरीखे / कर इनका उपहास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा / आता है क्यों रास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा / आता है क्यों रास रे जोगी
अरे मौत को बांच ले मनवा / करवाती आभास रे जोगी
प्यार से मिट जाती है दूरी /आये बैरी पास रे जोगी
प्यार करो बस प्यार करो तुम / थम जाये कब साँस रे जोगी
ज्ञान रहा है योगोंयुगों तक / दौलत हुई खलास रे जोगी
अच्छे इंसां क्या हैं ये तो / सबके लिए सुवास रे जोगी
स्वाभिमान का सुख है बढ़ कर / धन-दौलत बकवास रे जोगी
मत रोना होता आया है / सच का तो उपहास रे जोगी
सुख पाकर पगला जाता हूँ / दुःख ही आये रास रे जोगी
धीरे-धीरे इसे निकालो / पीड़ा देगी फाँस रे जोगी
अंधियारे को पी जा बढ़कर/ हरदम बाँट उजास रे जोगी
काम भले कुछ ऐसे कर दे / बन स्वर्णिम इतिहास रे जोगी
अब तो छोडो मजनूंगीरी / हो गयी उमर पचास रे जोगी
धरती की ही गोद मिलेगी / किसे मिला आकाश रे जोगी
बाद हमारे तुमको होगा / मेरा कुछ अहसास रे जोगी
मंजिल तो आयेगी इक दिन / करते रहो प्रयास रे जोगी.
गलत ख्वाहिशे मत पालो तुम / मिलता केवल त्रास रे जोगी
कल आने का बोल गए थे / हो गए बारह मास रे जोगी
खुद्दारी ही अपना मकसद / खा लेंगे हम घास रे जोगी
ये तो प्रेम-पियाला पंकज / बची रहे कुछ प्यास रे जोगी
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भले आदमी गूंगे हो गए / चीख रहे बदमाश रे जोगीचिंतन है तो चमकेगा ही / इसको और तराश रे जोगी
घर की रखवारी चोरों को / तब तो सत्यानाश रे जोगी
फेंट रहा है कोई ''जुआरी'' / हम तो हैं बस ताश रे जोगी
अगर आदमी खुद पे मोहित / होगा महाविनाश रे जोगी
खोजा उसको नहीं मिल सका / दिल में तनिक तलाश रे जोगी
जो दूजे के काम न आया / वो तो ज़िंदा लाश रे जोगी
दूर गया वो दिल ले कर के / आ जाता फिर काश रे जोगी
13 टिप्पणियाँ:
हर इक मिसरा वजनदार है / गजल बनी बिंदास रे जोगी
पढ़कर मुह से शब्द ये निकले / खूब लिखा शाबास रे जोगी !!
छत्तीसगढ़ के कवि के छत्तीस शे'र , अद्भुत हैं ।
बहुत से शे'र रेखांकित करने योग्य हैं , पुनः आऊंगा , अभी जल्दी में हूं
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बहुत सुन्दर, आपका यह कीर्तिमान सराहनीय है !
और ग़ज़ल तो है ही अति सुन्दर !
आज भैया बातो बातो कह दिनी क्या क्या बात रे जोगी !!
बातो बातो के बाद एक छोटा सा 'में' लगा लीजियेगा ............. मेरे पास ही रह गया था !!
chhote behar ki ye badi ghazal achhi lagi ...."sh" aur "s" wale anatr ko aapne pahle se hi dikha rakha hai to kahne ko kuch rah hi nahi jata..ehsaas umda hain jogi ke.. mast ghazal .. :) ..waise bahut sare tedhe medhe niyam hain ..jaise 10 se jyada sher hon tyo ..matle do ho jane chahiye... matle ke saath husn-e-matla ..ityadi ityadi .. :) anad aayaa..aap ki post par aa kar
चाचा जी बहुत ही वजन वाला और बढ़िया ग़ज़ल ..एक एक लाइन बेहतरीन बन पड़ी है मैने आपकी कुछ ग़ज़ल आज की ग़ज़ल पर भी पढ़ी है उन्हे दुबारा पढ़ना भी बहुत अच्छा लगा... चाचा जी 'श' को लेकर मैं भी बहुत दुविधा में था पर सही कहा आपने वजन पर कोई फ़र्क नही पड़ता...
जैसे कुछ लाइन मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ..आशीर्वाद दीजिएगा
बैठ मेरे तू पास रे जोगी,
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी,
गेरुआ,कपड़ा,चंदन,टीका,
सब कुछ है बकवास रे जोगी,
तुझे पता है सच्चाई कि,
हर दिल रब का वास रे जोगी,
फिर क्यों ऐसा भेष बनाया,
किसकी तुझे तलाश रे जोगी,
कौन सुनेगा तेरी टेरी,
सब हैं जिंदा लाश रे जोगी,
अपनों ने ही गर्दन काटी,
देख ज़रा इतिहास रे जोगी,
मरहम पास हमेशा रखो,
छोड़ो अब सन्यास रे जोगी,
फेंको अपनी झोला झंडी,
हो जाओ बिंदास रे जोगी
vinod, tumhare sher bhi bahut pyare hai. badhai.''s' aur ''sh'' se koi fark nahi padataa. vazan ho , pravaah ho,aur sarthakataa bhi ho.
लम्बी जरूर है पर रवानी बनी रही आखिर तक सर.. एक आशावादी और बेहतरीन भाव लिए ग़ज़ल. पढ़ा तो मैंने भी था पर ब्लॉग का नाम नहीं याद मुझे भी. :(
गिरीशजी , दीपकजी ,
जिस ब्लॉग की आप बात कर रहे हैं वह डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी जी का है । लिंक है http://aabarqi.blogspot.com/
…और आदरणीय गिरीशजी ,
आपकी लंबी ग़ज़ल पर बात करने की बजाए
ग़ज़ल का आनन्द लेना अच्छा लग रहा है ।
दो - तीन बार पढ़ चुका हूं …
हर बार वाह ही निकलती है ।
हां, मेरे एक वरिष्ठ शायर मित्र हैं "निसार अहमद अनजान" …बड़ी तवील ग़ज़लें लिखते हैं , छोटी भी । कई ग़ज़लों में 60 - 60 70 - 70 शे'र हैं । नज़र उन्वान से तो 367 शेरों का पूरा दीवान है उनका । 4381वीं ग़ज़ल अभी दो दिन पहले ही सुनाई थी मुझे ।
अनन्त सागर है यह ! … बस अपने वर्तुल में सिमटने वालों की दुनिया बहुत छोटी होती है । आप-हम जैसे तो निरंतर सीखते रहने के अभ्यासी हैं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
प्रिय राजेंद्र भाई, अद्भुत दुनिया है सृजन की. मुझे पता था कि मै कोई चमत्कार नहीं कर रहा. इस महादेश में अनेक धुरंधर है . इसीलिए मैंने कहा कि '' मेरी अब तक की सबसे लम्बी ग़ज़ल'' है . इससे लम्बी तो हम कभी लिख भी नहीं सकते. न कीर्तिमान ही रचने का इरादा है . बस लिखते जाना है, सचमुच निरंतर सीखते रहना ही जीवन है लेकिन मज़ा आया इस बार. कुछ चीज़ बनी, जिसने सुकून दिया.
गिरीशजी भाईसाहब,
आपने इतना कमाल तो किया , मुझसे तो दो चार ग़ज़लों के ही 20 - 22 शेर तक ही लिखे जा सके हैं अब तक ।
कीर्तिमान के लिए न सही , परंतु आपमें भी लेखन की असीम उर्वरा शक्ति / क्षमता होने के कारण आपके निजी कीर्तिमान निरंतर बनते रहेंगे ।
आपके और भी कमालों से रूबरू होने को आते रहना है यहां।
आपका राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर, सराहनीय है
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