हिंसा की देवी,तुम सुन रही हो न..?
>> Monday, June 7, 2010
दो नई कविताएँ
(१)
हिंसा की देवी, तुम सुन रही हो न..?
हिंसा की देवी,
तुम सुन रही हो न..?
जब तुम अपने कोमल होंठों से गाती हो
हिंसा के गीत
तब लगता है, एक सुन्दर फूल
काँटों के साथ मिल कर अपने ही फूलो
के जिस्मो को छलनी कर रहा है.
ओ स्त्री...
ओ करुणा,
ओ माँ..
अपनी ही संतानों को
नफ़रत का पाठ पढ़ा कर
तुम सनसनी तो फैला सकती हो,
मगर शांति के बिरवे नहीं रोप सकती
यह समय हत्यारों का है..
यह काल पापियों का है..
नकली बुद्धिजीवियों का है
जिस्म दिखाकर आधुनिक कहलाने की
नई सभ्यता का भी यही समय है
फिर भी कुछ लोग अब तक
कपड़ों में है और वे
काँटों के बरक्स
फूलों का कवच पहन कर
खड़े है बगीचे में.
हिंसा की देवी,
सुन रही हो न ?
कई बार पागल हवा
अपने आपको भी कर लेती है घायल
इसीलिए फूलो का दर्द समझो
और काँटों के विरुद्ध
खड़े हो कर फूलों के गीत गाओ
फूलों को
शांत और शीतल हवाए अच्छी लगती हैं.
जिनके साथ मिलकर वे
सुवास बिखराते है.
और सबके दिलों में उतर जाते है.
हिंसा की देवी,
तुम सुन रही हो न..?
(२)
कविता की माँ है करुणा
कविता
जब शांति के पक्ष में
खड़ी होती है
वह अपने शब्दों से
ज्यादा बड़ी होती है.
कविता क्या है
आदमी के जीने का सामान है
आदमी मुर्दा नहीं है
इसका एक सार्थक बयान है.
इसलिये कविता करते हो तो
शब्दों में जहर मत घोलो.
हिंसा आदमी के खिलाफ
एक साजिश है इतना तो बोलो.
अगर इतना भी नहीं कर सकते तो
बेहतर है मौन हो जाओ
और मरने से पेश्तर
हमेशा-हमेशा के लिए सो जाओ.
कविता जब पहली बार
इस धरा पर उतरी थी
तो उसका जन्म
करुणा की कोख से हुआ था
इसलिए करुणा कविता की माँ है.
और अब इस बूढ़ी माँ को
बचाना है.
क्योंकि बाहर कुछ हत्यारे
चाकू लेकर खड़े है.
11 टिप्पणियाँ:
दोनो ही रचनायें बेह्तरीन्।
...बेहतरीन रचनाएं !!
दोनों रचनाएँ बहुत प्रभावशाली....अच्छी प्रस्तुति
वाह!! अद्भुत रचनायें और विचार...बहुत आभार!!
कविता
जब शांति के पक्ष में
खड़ी होती है
वह अपने शब्दों से
ज्यादा बड़ी होती है.
-क्या कहने!!
चाचा जी मुझे नही लगता भावनाओं का सुंदर प्रस्तुतिकरण इससे बेहतर हो सकता है..मानवीय मूल्यों के प्रति आपकी ग़ज़ब की चेतना दृष्टिगोचर होती है..बहुत भावपूर्ण रचना दिल तक छू गयी...नतमस्तक हूँ..प्रणाम स्वीकारें
आप की दोनो कविताये बहुत सुंदर लगी जी धन्यवाद
बेहद उम्दा अभिव्यक्ति और शानदार रचनाएँ !
बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
alag aur vipreet rangon ki ye kavitayen sath sath khil gayee hain .. sarthak kavita ..
वाह गिरीश जी क्या कहने। वाह। हिंसा की देवी। वाह। अरे साहब हिंसा का पुरुष भी हो सकता है क्या। वैसे एक प्रयोग कर सकते हैँ। हिंसा का पुरुष भी लिखिए। खूब पसंद किया जाएगा। यह कविता भी हमेशा की तरह बहुत शानदार। क्या कहने।
http://udbhavna.blogspot.com/
आप की दोनो कविताये बहुत सुंदर लगी जी धन्यवाद
बहुत सुंदर ! कलात्मक ! शुभकामनायें !
कभी यहाँ भी पधारें
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