भूल गया सारी कडुवाहट इतना ज्यादा प्यार मिला
>> Tuesday, June 8, 2010
नई ग़ज़ल..
ग़ज़ल के हर शेर अपनी बात खुद बयाँ कर देते है. इसलिए उनके लिए कुछ लिखना ठीक नहीं, इसलिए बिना किसी लम्बी व्याख्या के, पेश है मेरी नई ग़ज़ल...
जितना मुझको मिला सच कहूँ जी भरकर उपहार मिला
भूल गया सारी कडुवाहट इतना ज्यादा प्यार मिला
जैसा दोगे इस दुनिया में वैसा ही तुम पाओगे
एक नहीं यह अनुभव सबको जीवन में हर बार मिला
तुम क्या आए ये मौसम भी अब कुछ-कुछ रूमानी है
गर्मी में बरसात हो गयी, घर बठे त्यौहार मिला
पास अगर है पद-पैसा तो दुनिया शीश झुकाती है
खाली जेबों को दुनिया में मरा हुआ व्यवहार मिला
मैंने उनको राह दिखाई अब उसने मुँह फेर लिया
उनकी नैया पार हो गयी,बस हमको मँझधार मिला
प्यार लुटाया अपना जिसने, उसको हरदम प्यार मिला
जैसी करनी वैसी भरनी इस जीवन का सार मिला
अपनेपन की आस लिए हम उन लोगों के बीच गए
हमको अपने हिस्से केवल इक गंदा बाज़ार मिला
सुबह-सुबह मै डर जाता हूँ कैसे देखूँ ये मंजर
खूँ से लथ-पथ रोज़ाना अब मुझको हर अखबार मिला
कैसे अपनी हालत पंकज ठीक भला मैं कर पता
जो हकीम था इस बस्ती में वो खुद ही बीमार मिला
13 टिप्पणियाँ:
आपकी हर पंक्ति में गहरा व्यंग्य होता है...बधाई
मैंने उनको राह दिखाई अब उसने मुँह फेर लिया
उनकी नैया पार हो गयी,बस हमको मँझधार मिला
दुनिया मतलब की है
हर शेर लाजवाब है।
आभार
मैंने उनको राह दिखाई अब उसने मुँह फेर लिया
उनकी नैया पार हो गयी,बस हमको मँझधार मिला
आज के वक्त में सटीक बात कह दी है...खूबसूरत ग़ज़ल/
हमको अपने हिस्से केवल इक गंदा बाज़ार मिला....लेकिन बावजूद इसके आपके प्रति आश्वस्त हूं गिरीश जी....आपने थाईलेंड की यात्रा के बाद यह घोषित किया था कि "बाज़ार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं"... बिना "तिजारत" किये बाज़ार घुमते रहें आप यही निवेदन और शुभकामना भी.
पंकज झा.
fabulous
आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
...बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय गजल!!!
बेहद उम्दा हर बार की तरह ! आभार !
wah sir..wah wah ! :))
सुबह-सुबह मै डर जाता हूँ कैसे देखूँ ये मंजर
खूँ से लथ-पथ रोज़ाना अब मुझको हर अखबार मिला
चाचा जी ग़ज़ल हो या कविता ..आप बेहतरीन लिखते है यह कहने की बात नही है फिर भी कह रहा हूँ..हर एक लाइन में जबरदस्त भाव समाहित है..सुंदर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद प्रणाम
मैंने उनको राह दिखाई अब उसने मुँह फेर लिया
उनकी नैया पार हो गयी,बस हमको मँझधार मिला...
और
जितना मुझको मिला सच कहूँ जी भरकर उपहार मिला
भूल गया सारी कडुवाहट इतना ज्यादा प्यार मिला...
एक पल आशा एक पल निराशा ...यही दुनिया का कारोबार है ...!!
अभी शस्वरं पर मैंने रूमानी ग़ज़लें लगा रखी है …और आपका यह शे'र भी है रूमानियत से लबरेज़ …
"तुम क्या आए ये मौसम भी अब कुछ-कुछ रूमानी है
गर्मी में बरसात हो गयी, घर बैठे त्यौहार मिला"
पूरी ग़ज़ल अच्छी है , लेकिन
अभी इस रंग में ही डूबा रहना चाहूंगा …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
खूबसूरत गज़ल.....तीक्षण व्यंग्य...
अतिसुन्दर!
बधाई!
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