''सद्भावना दर्पण'

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ग़ज़ल/ लहू से तर रहे बस्तर हमें अच्छा नहीं लगता

>> Wednesday, June 30, 2010

बस्तर फिर लहूलुहान हो गया; लगता है हम छत्तीसगढ़ के लोग केवल लाशें गिनाते जायेंगे. आज हम गिन रहे हैं, पता नहीं कल हमें भी कोई गिनने बैठ जाए.सरकार असफल होती जा रही है और उधर नक्सलियों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं. हर हत्याओं के बाद 'वे' अपनी सफलता पर जश्न मनातेहोंगे और अपनी किसी योजना या विचारधारा की राह पर ''लोगो को कुर्बान'' करने के बाद किसी भी अपराधबोध से मुक्त हो कर किसी ''नयी     योजनाओं'' में भिड जायेंगे. खैर, कितने आंकड़े गिनाऊँ, कुछ शेर देखिये.

  ग़ज़ल

लहू से तर रहे बस्तर..हमें अच्छा नहीं लगता 
ये छत्तीसगढ़ हैं आँसूघर..हमें अच्छा नहीं लगता 

ये नफ़रत एक दिन हमको अमानुष ही बना देगी
ये हिंसा का भयानक स्वर..हमें अच्छा नहीं लगता

तुम्हारी माँग है जो कुछ उसे तुम सामने रक्खो
ये कत्लेआम का मंज़र..हमें अच्छा नहीं लगता

अगर हम सभ्य हैं सचमुच तो उसका कुछ पता तो दो
न हो हम जंगली-बर्बर..हमें अच्छा नहीं लगता 

चलो मिलजुल के हम-तुम प्यार की दुनिया बसायेंगे
किसी भी हाथ में खंजर..हमें अच्छा नहीं लगता

इधर से गोलियाँ चलतीं उधर बारूद उठता है
ये खूनी सिलसिला बदतर..हमें अच्छा नहीं लगता

उठें अब लोग सारे सिरफिरों को जा के समझाएँ
उजड़ता देश यह सुन्दर..हमें अच्छा नहीं लगता

ये जलता देश इसको कौन है जो अब बचाएगा 
यहाँ तो सो रहे रहबर..हमें अच्छा नहीं लगता

अगर है प्यार की बोली तो गोली क्यों चले 'पंकज'
बहे आँसू यहाँ झरझर.. हमें अच्छा नहीं लगता

15 टिप्पणियाँ:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" June 30, 2010 at 6:04 AM  

बहुत ही सुन्दर रचना ... अपने राज्य के लिए आपके दिल में जो भावनाएं हैं उसे आपने बखूबी उभरे हैं ...

Udan Tashtari June 30, 2010 at 6:35 AM  

अगर है प्यार की बोली तो गोली क्यों चले 'पंकज'
बहे आँसू यहाँ झरझर.. हमें अच्छा नहीं लगता


-किसी को भी अच्छा नहीं लगता मगर इन सियासतदारों को कैसे सहन होता है..क्या कहें!!!


बेह्तरीन झकझोरती गज़ल!

विनोद कुमार पांडेय June 30, 2010 at 7:34 AM  

चाचा जी ..बेहद भावपूर्ण एवं सोचनीय ग़ज़ल...ऐसे लोग पता नही क्या चाहते है और न जाने क्या चाहती है हमारे देश की सरकार ..आख़िर कब तक ऐसे जाने जाती रहेंगी...आपकी लेखनी के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ..काश कुछ सुधार हो जाय नक्सलवाद स्थितियों में..

प्रणाम चाचा जी..

समय चक्र June 30, 2010 at 7:42 AM  

अगर है प्यार की बोली तो गोली क्यों चले 'पंकज'
बहे आँसू यहाँ झरझर.. हमें अच्छा नहीं लगता

बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना .... देश, राज्य प्रेम का जज्बा तो होना ही चहिये... आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) June 30, 2010 at 8:11 AM  

मर्म स्पर्शी गज़ल......सच ये कत्लेआम कब रुकेगा?

36solutions June 30, 2010 at 10:01 AM  

अगर है प्यार की बोली तो गोली क्यों चले 'पंकज'

धन्‍यवाद भईया.

ब्लॉ.ललित शर्मा June 30, 2010 at 10:24 AM  

बस्तर फिर लहूलुहान हो गया; लगता है हम छत्तीसगढ़ के लोग केवल लाशें गिनाते जायेंगे. आज हम गिन रहे हैं, पता नहीं कल हमें भी कोई गिनने बैठ जाए।

बस अब और नहीं!!!!

राज भाटिय़ा June 30, 2010 at 10:33 AM  

.सरकार असफल होती जा रही है और उधर नक्सलियों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं. अजी क्या पता? बीच मै कोन सी खिचडी पक रही है, अगर सरकार चाहे तो एक दिन मै ही यह सब बन्द हो सकता है, लेकिन सरकार मन से चाहती ही नही हो सकता है बीच मै कुछ नेता भी इन से मिले
हुये हो

राजकुमार सोनी June 30, 2010 at 12:00 PM  

यहां जो कुछ घट रहा है वह सबको तकलीफ देता है। भला एक संवेदनशील रचनाकार इससे कैसे बच सकता है।
हमारी रचना ही इस खतरनाक समय में हमारा हस्तक्षेप हैं। जब बोलने की जरूरत हो तब कोई लेखक से उम्मीद करें कि वह खामोश रहे यह कैसे हो सकता है।
आपने ठीक किया। आपका शुक्रिया।

ब्लॉ.ललित शर्मा June 30, 2010 at 5:19 PM  

अच्छी पोस्ट

आपके ब्लाग की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर

Umesh June 30, 2010 at 5:31 PM  

सचमुच अच्छा नहीं लगता गिरीश जी, लेकिन समस्या के निदान का सटीक उपाय भी तो नहीं खोज पा रहे हम।

सूर्यकान्त गुप्ता June 30, 2010 at 7:49 PM  

गज़ल के माध्यम से भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति।

Anonymous June 30, 2010 at 8:53 PM  

गिरीश जी हम कोई रचनाकार तो हैँ नही फिर भी कुछ लिख रहे हैँ

बन्द करो ये रोज का लङना झगङना
क्योकिँ हमे ये सब अच्छा नही लगता
प्यार से तो दुनिया को भी जीता जा सकता है
ये दुश्मनी का मंजर हमे अछ्छा नही लगता
ये लोग तो अपने ही हैँ
सरकार का ये बहाना अछ्छा नही लगता
कितने और छत्तीसगढ होँगे
ये सोचकर खाना अछ्छा नही लगता
कभी छत्तीसगढ तो कश्मीर
ये रोज नया फसाना हमे अछ्छा नही लगता
जब है प्यार कि बोली तो गोली क्योँ चले पंकज
किसी का यूं ही तङपना हमे अछ्छा नही लगता ।

ज्योत्स्ना पाण्डेय July 1, 2010 at 11:00 AM  

सामायिक विषय पर सामाजिक चिंतन से जुडी, संवेदनशील रचना.....प्रभावी.

सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं.....

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') July 6, 2010 at 7:31 PM  

"उठें अब लोग सारे सिरफिरों को जा के समझाएँ
उजड़ता देश यह सुन्दर..हमें अच्छा नहीं लगता"
गिरीश भईया, तहे दिल से ये दुआ निकलती है कि आपका आवाहन हर सिरफिरे के सिर का संतुलन बन जाए. आमीन.

सुनिए गिरीश पंकज को

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