''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
&COPY गिरीश पंकज संपादक सदभावना दर्पण. Powered by Blogger.

ग़ज़ल/इसको जीने-खाने दो...

>> Friday, July 2, 2010

जीवन दुःख की कथा है. हर व्यक्ति के जीवन में एक व्यथा है. लेकिन समझदार उसे पार कर लेता है. दुःख को साथी बनाने के लिये कवि प्रेरित करते रहे है. सुख-दुःख और संघर्ष के विभिन्न रूपों को सोचते हुए कुछ शेर बन गए. आप सब गुण-ग्राहकों की खिदमत में पेश हैं-

इसको जीने-खाने दो
दुःख आता है आने दो

सुख जैसे इक छलिया है
जाता है तो जाने दो

जीत हमारी निश्चित है
वक़्त ज़रा तो आने दो

हार नहीं तुम मानोगे
दुश्मन को थक जाने दो

तुम तो अपना काम करो 
लोगों को समझाने दो

मरकर भी जीयोगे तुम
कुछ अच्छे अफसाने दो

बेशक मत तारीफ़ करो
ऐसे तो ना ताने दो

वादा तेरा वादा है
जब भी मिले बहाने दो

आओ बदलें यह दुनिया
निकलें हम दीवाने दो

मिहनतकश है वो साथी
उसको तो हक पाने दो

मत रोको मन को पंकज 
मूड हुआ तो गाने दो 

13 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) July 2, 2010 at 9:30 AM  

हार नहीं तुम मानोगे
दुश्मन को थक जाने दो

खूबसूरत गज़ल...आगे बढने कि प्रेरणा देती हुई...

शिवम् मिश्रा July 2, 2010 at 9:45 AM  

"जीत हमारी निश्चित है
वक़्त ज़रा तो आने दो

हार नहीं तुम मानोगे
दुश्मन को थक जाने दो"


उसी वक़्त का तो इंतज़ार है .......................बहुत बढ़िया रचना !

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार July 2, 2010 at 9:49 AM  

पंकजजी ,
अच्छी रचना के लिए बधाई !

जीवन दर्शन झलकता है इस शे'र में…
मरकर भी जीयोगे तुम
कुछ अच्छे अफ़साने दो


मेरे मिज़ाज की अभिव्यक्ति है मक़्ते में…
मत रोको मन को पंकज
मूड हुआ तो गाने दो


और रदीफ़ को बदले बिना नये अर्थ के साथ नये शब्द की तरह ढाल देने की कारीगरी पसंद आई…
आओ बदलें यह दुनिया
निकलें हम दीवाने दो


साभार … !

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Udan Tashtari July 2, 2010 at 5:15 PM  

मरकर भी जीयोगे तुम
कुछ अच्छे अफसाने दो


-बहुत उम्दा गज़ल..छोटे बहर की.

दीपक 'मशाल' July 2, 2010 at 5:42 PM  

एकदम ल्यूकोजेड की तरह काम कर रही है ये ग़ज़ल सर..

आचार्य उदय July 2, 2010 at 7:06 PM  

सुन्दर लेखन।

निर्मला कपिला July 2, 2010 at 10:23 PM  

सुख जैसे इक छलिया है
जाता है तो जाने दो
वाह बहुत खूब । हर शेर उमदा है किस किस की तारीफ करूँ। शानदार गज़ल के लिये बधाई।

राजकुमार सोनी July 3, 2010 at 1:16 AM  

वाह-वाह भाई साहब
मजा आ गया।
पैनी धारधार गजल।

राज भाटिय़ा July 3, 2010 at 1:23 AM  

बहुत अच्छी रचना जी. धन्यवाद

Satish Saxena July 3, 2010 at 9:32 AM  

मूड हुआ तो गाने दो ......
वाह क्या मिठास है ... शुभकामनायें !

अनामिका की सदायें ...... July 3, 2010 at 11:53 AM  

वाह क्या बात कही है...

मूड हुआ तो गाने दो

सच में लेखक वाली बात...

कबीर का सा स्टाईल याद आ गया.

कबीरा खड़ा बाजार में..
मांगे सब की .....

विनोद कुमार पांडेय July 3, 2010 at 9:24 PM  

बहुत खूब...

कितने सुंदर भाव पिरोए,
क्या बोलूँ मैं, जाने दो,

चाचा जी एक बढ़िया सरल-सटीक ग़ज़ल के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ..आप की ग़ज़ल में यहीं खास बात होती है..बिल्कुल सरल पर भाव एक एक बढ़ कर एक बेहतरीन होते है...आज की रचना भी लाजवाब.....बधाई स्वीकारें...प्रणाम

Sushant Jain February 11, 2011 at 11:50 AM  

raddef ka isse behtar istemaal kya ho sakta tha...

आओ बदलें यह दुनिया
निकलें हम दीवाने दो

saral bhasha me sunder gazhal...

सुनिए गिरीश पंकज को

  © Free Blogger Templates Skyblue by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP