''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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नई ग़ज़ल/ निकलेंगे फिर जुल्म मिटाने

>> Sunday, September 12, 2010

जो प्रतिबद्ध हो कर लिखते है, उनके लिये रचना परिवर्तन का माध्यम होती है.कोशिश करता हूँ कि कुछ ऐसा लिखूं,कि लोग उसे कुछ समय तक तो याद रख सकें. लेकिन ऐसा सौभाग्य कम लोगों को ही मिल पाता है. फिर भी मेरा काम है लिखना. लिखते रहना. कभी कविता, कभी ग़ज़ल, कभी व्यंग्य. विधा कोई भी हो, लक्ष्य है वैचारिक परिवर्तन. बहरहाल, फिर कुछ दिन विराम के बाद हाजिर हूँ एक नई ग़ज़ल के साथ. पता नहीं ये आपको कितनी पसंद आती है.

फूल सरीखे अच्छे लोग
बन कर खुशबू बहते लोग

निकलेंगे फिर जुल्म मिटाने
ले सूरज के झंडे लोग

प्यार बाँटने वाले क्या हैं
हर युग में जो चमके लोग

वो सुगंध जो ख़त्म न होती
ऐसे भी कुछ रहते लोग

नेकी रहती सब पे भरी
बात पते की कहते लोग

धारा के विपरीत हमेशा
बहते हैं कुछ बहके लोग 

मर कर मर जाते हैं झूठे
जिंदा रहते सच्चे लोग

चुप रहते हैं अकसर देखा 
अपनों से दुःख सहके लोग

इक दिन मिल जायेगी मंजिल
सोच यही बस चलते लोग

मत घबराना संघर्षों से
बनते हैं कुछ तप के लोग

कायरपन की बात न पूछो 
वार करे हैं छिप के लोग

निर्मल मन वालों तक पंकज 
आ जाते है चल के लोग

8 टिप्पणियाँ:

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') September 12, 2010 at 8:38 AM  

ऐसी उम्दा गज़लें आपकी
बार बार हैं पढ़ते लोग.
आप सूर्य बन चमको भईया
दुआ यही सब करते लोग.

कडुवासच September 12, 2010 at 9:50 AM  

... behatreen ... laajawaab !!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) September 12, 2010 at 10:16 AM  

नयी चेतना सी जागृत करती सुन्दर गज़ल

ASHOK BAJAJ September 12, 2010 at 12:04 PM  

ग्राम चौपाल में तकनीकी सुधार की वजह से आप नहीं पहुँच पा रहें है.असुविधा के खेद प्रकट करता हूँ .आपसे क्षमा प्रार्थी हूँ .वैसे भी आज पर्युषण पर्व का शुभारम्भ हुआ है ,इस नाते भी पिछले 365 दिनों में जाने-अनजाने में हुई किसी भूल या गलती से यदि आपकी भावना को ठेस पंहुचीं हो तो कृपा-पूर्वक क्षमा करने का कष्ट करेंगें .आभार


क्षमा वीरस्य भूषणं .

arvind September 12, 2010 at 10:20 PM  

aapki yah rachna nai chetanaa jaagrit karati hai....behtarin..laajavaab

vandana gupta September 12, 2010 at 10:46 PM  

सोच को एक नई दिशा देती रचना।

भारतीय की कलम से.... September 12, 2010 at 11:28 PM  

पढ़कर अभिभूत हूँ, टिपण्णी करने का सहस तो कर ही नहीं सकता बस आपको प्रणाम करता हूँ.................!!

Majaal September 12, 2010 at 11:44 PM  

अन्दर अपने हमको अक्सर,
मिलते कैसे कैसे लोग ...
सुन्दर रचना ...

सुनिए गिरीश पंकज को

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