''सद्भावना दर्पण'

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नई ग़ज़ल/ दर्द ही अपनी धरोहर दर्द ही हम गा रहे हैं

>> Wednesday, January 5, 2011

आंकड़ें भरमा रहे हैं
यूं छले हम जा रहे हैं

पी रहे हैं ग़म बेचारे 
वायदों को खा रहे हैं 

हमने केवल सच कहा था
आप क्यों चिल्ला रहे हैं 

सत्य कितना है अपाहिज
झूठ को दौड़ा रहे हैं


जिनपे करते थे यकीं हम
लूट कर वो जा रहे हैं

लूटने कुछ लोग बस्ती
वेश धर कर आ रहे हैं 

आदमी की देख केंचुल
साँप भी शरमा रहे हैं

क्या गलत कुछ हो गया है
आप क्यूं घबरा रहे हैं

खुद तो करते ऐश हमको
ख्वाब ही दिखला रहे हैं

न्याय को सूली मिली है
पाप जी मुस्का रहे हैं 

तुमने दिल से है पुकारा
दिल लिये हम आ रहे हैं

एक नकली ज़िंदगी पर
लोग बस इतरा रहे हैं

साथ क्या ले जायेंगे वे
धन बंटोरे जा रहे हैं 

कुर्सियाँ कब तक टिकी हैं
उनको हम समझा रहे हैं 

दर्द ही अपनी धरोहर
दर्द 'पंकज' गा रहे हैं

8 टिप्पणियाँ:

महेन्‍द्र वर्मा January 5, 2011 at 6:29 AM  

हमने केवल सच कहा था
आप क्यों चिल्ला रहे हैं

सत्य कितना है अपाहिज
झूठ को दौड़ा रहे हैं

वर्तमान युग के यथार्थ को उद्घाटित करती अच्छी पंक्तियां।
इस उत्तम रचना के लिए बधाई, पंकज जी।

Er. सत्यम शिवम January 5, 2011 at 6:39 AM  

बहुत ही सुंदर....सत्य का बोध कराती

आपका अख्तर खान अकेला January 5, 2011 at 7:38 AM  

girish bhayi siyast ko nngaa kr dene vaali aapki yeh rchnaa khud jhunthe or mkkar netaaon ko aayna dikhaa rhi he . akhtar khan akela kota rajsthan

Rajeev Bharol January 5, 2011 at 1:20 PM  

बहुत बदिया.. सभी अशआर पसंद आये.

संजय भास्‍कर January 5, 2011 at 5:19 PM  

हर शेर लाजवाब और बेमिसाल ..

निर्मला कपिला January 5, 2011 at 9:42 PM  

हर एक शेर कमाल है लेकिन ये शेर बहुत अच्छे लगे
सत्य कितना है अपाहिज
झूठ को दौड़ा रहे हैं

लूटने कुछ लोग बस्ती
वेश धर कर आ रहे हैं

आदमी की देख केंचुल
साँप भी शरमा रहे हैं
सुन्दर गज़ल के लिये बधाई।

Anonymous January 6, 2011 at 11:10 PM  

दर्द ही अपनी धरोहर
दर्द 'पंकज' गा रहे हैं !!!
नव वर्ष की मंगलमय कामनाएं आप और आप के गीतों के लिए

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') January 8, 2011 at 7:56 AM  

लूटने कुछ लोग बस्ती
वेश धर कर आ रहे हैं

आदमी की देख केंचुल
साँप भी शरमा रहे हैं
शानदार रचना पर बधाई. भईया प्रणाम.

सुनिए गिरीश पंकज को

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