''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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नई ग़ज़ल / मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना

>> Sunday, January 23, 2011

जीने का बस एक हुनर देते जाना
मुझको कोई ख़्वाब इधर देते जाना

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना


खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना


तुमने दुनिया का हर वैभव पाया है
औरों को भी कुछ अवसर देते जाना


इन अंधी आँखों को थोड़ा पता चले
दुनिया की कुछ नई खबर देते जाना



जली-कटी क्यों रोज़ सुनाते हैं साहब
बस थोड़ा-सा मुझे जहर देते जाना 


केवल बातों से क्या कोई बात बनी
मुझको बस इसका उत्तर देते जाना


ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना 


तुमने मेरी नींद चुराई है पंकज
इक दिन आके दर्शन भर देते जाना

23 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) January 23, 2011 at 6:04 AM  

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना


बहुत खूबसूरत गज़ल ...यही जीने का हुनर मिलता रहे ..


नीलकंठ

vandana gupta January 23, 2011 at 6:35 AM  

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना

वाह! क्या बात कही है……………बस यही चाहता है इंसान …………अति सुन्दर ।

Sunil Kumar January 23, 2011 at 8:26 AM  

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
वाह! क्या बात है.......

nilesh mathur January 23, 2011 at 8:39 AM  

वाह! बेहतरीन ग़ज़ल, हमेशा की तरह!

डॉ. मोनिका शर्मा January 23, 2011 at 10:10 AM  

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना

बहुत खूबसूरत गज़ल .....

राज भाटिय़ा January 23, 2011 at 10:12 AM  

बहुत सुंदर गजल जी, धन्यवाद

shikha varshney January 24, 2011 at 1:44 AM  

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
काश बस एक यही डर हो इंसान में.
बहुत सुन्दर गज़ल.

PAWAN VIJAY January 24, 2011 at 1:54 AM  

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना

सत्य है

bilaspur property market January 24, 2011 at 3:51 AM  

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
.................बहुत सुन्दर

वीना श्रीवास्तव January 24, 2011 at 4:46 AM  

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना

खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना

क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी...

संगीता स्वरुप ( गीत ) January 24, 2011 at 7:01 AM  

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 25-01-2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.uchcharan.com/

Mithilesh dubey January 24, 2011 at 10:28 AM  

क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी..

Anupama Tripathi January 24, 2011 at 6:39 PM  

खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना


सुंदर सोच से परिपूर्ण रचना -
बधाई

Anamikaghatak January 24, 2011 at 6:40 PM  

waah ustad wah

सहज साहित्य January 24, 2011 at 8:23 PM  

जली-कटी क्यों रोज़ सुनाते हैं साहब
बस थोड़ा-सा मुझे जहर देते जाना
इन पंक्तियों की तल्ख़ी बहुत खूबसूरती से बयान की गई है । बधाई हो भाई पंकज जी !

Kailash Sharma January 24, 2011 at 9:32 PM  

खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना..

bahut khoobasoorat gazal..harek sher lazawaab..

सूर्यकान्त गुप्ता January 24, 2011 at 9:33 PM  

बहुत ही सुंदर मार्मिक रचना। आदरणीय पंकज जी को बहुत बहुत बधाई……

POOJA... January 24, 2011 at 10:22 PM  

बहुत खूब...
आज आपके ब्लॉग पर पहली मर्तबा आई हूँ... परन्तु लग रहा है की आज तक क्यूं नहीं आई थी... बहुत कुछ सीख जाती...
शुक्रिया इतनी सुन्दर, कई भावों को समेटे इस ग़ज़ल से मुखातिब करवाने के लिए...

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) January 25, 2011 at 4:36 AM  

केवल बातों से क्या कोई बात बनी
मुझको बस इसका उत्तर देते जाना

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना

bahut sunder!

mridula pradhan January 25, 2011 at 7:34 AM  

ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
wah .kya baat hai.

महेन्‍द्र वर्मा January 25, 2011 at 7:39 AM  

बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना

वाह, बहुत कीमती बात कही है आपने।
आजकल के लोग किसी और से भले डरते होंगे लेकिन ईश्वर से नहीं डरते।

प्रशंसनीय ग़ज़ल।

Dr (Miss) Sharad Singh January 25, 2011 at 10:04 AM  

खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना....

क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी...उम्दा...।

विनोद कुमार पांडेय January 25, 2011 at 6:46 PM  

खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना

चाचा जी, बेहतरीन सुंदर भाव समेटे हुए एक बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने...आपकी ग़ज़लें हो या व्यंग्य आलेख संवेदना से लबरेज होती है| ग़ज़लें तो पढ़ते ही दिल दिमाग़ पर छा जाती है....सार्थक ब्लॉगिंग यही होती है...प्रणाम चाचा जी..

सुनिए गिरीश पंकज को

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