नई ग़ज़ल / मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
>> Sunday, January 23, 2011
जीने का बस एक हुनर देते जाना
मुझको कोई ख़्वाब इधर देते जाना
मुझको कोई ख़्वाब इधर देते जाना
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना
तुमने दुनिया का हर वैभव पाया है
औरों को भी कुछ अवसर देते जाना
इन अंधी आँखों को थोड़ा पता चले
दुनिया की कुछ नई खबर देते जाना
जली-कटी क्यों रोज़ सुनाते हैं साहब
बस थोड़ा-सा मुझे जहर देते जाना
केवल बातों से क्या कोई बात बनी
मुझको बस इसका उत्तर देते जाना
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
तुमने मेरी नींद चुराई है पंकज
इक दिन आके दर्शन भर देते जाना
23 टिप्पणियाँ:
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
बहुत खूबसूरत गज़ल ...यही जीने का हुनर मिलता रहे ..
नीलकंठ
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
वाह! क्या बात कही है……………बस यही चाहता है इंसान …………अति सुन्दर ।
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
वाह! क्या बात है.......
वाह! बेहतरीन ग़ज़ल, हमेशा की तरह!
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
बहुत खूबसूरत गज़ल .....
बहुत सुंदर गजल जी, धन्यवाद
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
काश बस एक यही डर हो इंसान में.
बहुत सुन्दर गज़ल.
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
सत्य है
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
.................बहुत सुन्दर
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना
क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी...
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 25-01-2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी..
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना
सुंदर सोच से परिपूर्ण रचना -
बधाई
waah ustad wah
जली-कटी क्यों रोज़ सुनाते हैं साहब
बस थोड़ा-सा मुझे जहर देते जाना
इन पंक्तियों की तल्ख़ी बहुत खूबसूरती से बयान की गई है । बधाई हो भाई पंकज जी !
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना..
bahut khoobasoorat gazal..harek sher lazawaab..
बहुत ही सुंदर मार्मिक रचना। आदरणीय पंकज जी को बहुत बहुत बधाई……
बहुत खूब...
आज आपके ब्लॉग पर पहली मर्तबा आई हूँ... परन्तु लग रहा है की आज तक क्यूं नहीं आई थी... बहुत कुछ सीख जाती...
शुक्रिया इतनी सुन्दर, कई भावों को समेटे इस ग़ज़ल से मुखातिब करवाने के लिए...
केवल बातों से क्या कोई बात बनी
मुझको बस इसका उत्तर देते जाना
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
bahut sunder!
ऊपर वाले तुझसे इतनी विनती है
मुझको मंज़िल नहीं, डगर देते जाना
wah .kya baat hai.
बची रहे ये दुनिया हरदम पापों से
ऊपरवाले का इक डर देते जाना
वाह, बहुत कीमती बात कही है आपने।
आजकल के लोग किसी और से भले डरते होंगे लेकिन ईश्वर से नहीं डरते।
प्रशंसनीय ग़ज़ल।
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना....
क्या खूब ग़ज़ल कही है..बहुत अच्छी...उम्दा...।
खूब उड़ानें भर ली है तुमने ऊँची
नन्हें पाखी को भी पर देते जाना
चाचा जी, बेहतरीन सुंदर भाव समेटे हुए एक बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की आपने...आपकी ग़ज़लें हो या व्यंग्य आलेख संवेदना से लबरेज होती है| ग़ज़लें तो पढ़ते ही दिल दिमाग़ पर छा जाती है....सार्थक ब्लॉगिंग यही होती है...प्रणाम चाचा जी..
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