नई ग़ज़ल / छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
>> Monday, February 28, 2011
झेलता हूँ छल मगर यह छल नहीं आया
मैं भी इक शातिर बनूँ वह पल नहीं आया
कल हमारे दिन फिरेंगे बस यही सोचा
सोचता ही रह गया वह कल नहीं आया
प्यास जिसको भी लगी वो जल तलक पहुंचा
सच यही है प्यासे लब तक जल नहीं आया
सब्र करती ज़िंदगी की त्रासदी देखो
सब्र का मिलता है मीठा फल..नहीं आया
खूब गरजे थे मगर वे फिर नहीं बरसे
लौट कर बस्ती में इक बादल नहीं आया
माँ तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूँ
छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
रोज़ वादे और नारे? यह सियासत है
नित समस्याएँ बढ़ीं पर हल नहीं आया
झूठ का 'पंकज' यहाँ सम्मान है कितना
सत्य की खातिर कोई पागल नहीं आया
21 टिप्पणियाँ:
मन को छूती अच्छी गज़ल
बहुत सुन्दर ! बेहतरीन ग़ज़ल है ....
सत्य की ख़ातिर कोई पागल नहीं आया।
सही कहा आपने,
पागल हुए बिना सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती, अरस्तू से आइंस्टीन तक और कबीर से कालिदास तक की कहानी यही कहती है।
प्रभावशाली ग़ज़ल।
अच्छा हुआ ये सारे पल नहीं आये। आदमीयत बची रहेगी। बहुत अच्छी रचना।
झूठ का 'पंकज' यहाँ सम्मान है कितना
सत्य की खातिर कोई पागल नहीं आया
वाह जी जबाब नही... बहुत खुब धन्यवाद
बहुत उम्दा ग़ज़ल.
झूठ का 'पंकज' यहाँ सम्मान है कितना
सत्य की खातिर कोई पागल नहीं आया
बहुत तंज़ है आपके इस शेर में.
सलाम.
आदरणीय भाईजी गिरीश पंकज जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
पूरी ग़ज़ल शानदार है…
एक दो शे'र कोट करने से संतुष्टि नहीं हो सकती मुझे …
मन रंजन के लिए ये अश्'आर बहुत भाए -
खूब गरजे थे मगर वे फिर नहीं बरसे
लौट कर बस्ती में इक बादल नहीं आया
कई अर्थ ध्वनित हैं इस शे'र में
मां तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूं
छांव देने फिर कोई आंचल नहीं आया
आंख भिगोने को पर्याप्त है यह शे'र … … …
ईश्वर किसी से मां का साया न छीने …
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
माँ तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूँ
छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
सुन्दर गज़ल ..
सुंदर भावाभिव्यक्ति....
गहरी वेदना है .
झेलता हूँ छल मगर यह छल नहीं आया
मैं भी इक शातिर बनूँ वह पल नहीं आ
बेहद उम्दा ख्याल.
sir ji bahut acchi gazal par ek mistake ko sudhaar lijiye baadal nahi aaya hai vo badal likh diya hai aapne
aa ki maatra nahi lagi hai
aapka charandeep ajmani pithora
झेलता हूँ छल मगर यह छल नहीं आया
मैं भी इक शातिर बनूँ वह पल नहीं आया
-वाह! क्या बात है...बहुत उम्दा.
shiman !
namskar
main bhi ek shatir banun----- kya batt haai ,utkrishth vicharon ko
badi kushalta ke sath vyakt kiya gaya
hai .prabhavkari shilp.badhayiyan.
माँ तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूँ
छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
बहुत सीधे सच्चे सरल शब्द और गहरी बातें...ये ही खूबी है आपकी लेखनी की...बधाई स्वीकारें..
नीरज
लाजवाब। बेहतरीन गजल।
झूठ का 'पंकज' यहाँ सम्मान है कितना
सत्य की खातिर कोई पागल नहीं आया
हालात का सार्थक चित्रण्…………।बेहतरीन गज़ल्।
रोज़ वादे और नारे? यह सियासत है
नित समस्याएँ बढ़ीं पर हल नहीं आया
bahut khoob....
बहुत ही उम्दा ख्यालात का मुजाहरा किया है आपने अपनी इस गजल में... हर शेर दिल को छूता है
माँ तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूँ
छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
वाह!! हर शेर लाजवाब ... ये वाला तो दिल की गहराईयों में उतर गया ... धन्यावाद
वाह !! पंकज जी.. इतने खूबसूरत अशआरों से सजी हुई यह ग़ज़ल... निःशब्द कर दिया आपने.. किसी एक शेर को निकल पाना असंभव सा लग रहा है... हर शेर दूसरे से बढ़कर लग रहा है.. बहुत बेहतरीन...
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http://punarjanmm.blogspot.com/
खूब गरजे थे मगर वे फिर नहीं बरसे
लौट कर बस्ती में इक बादल नहीं आया
माँ तुम्हारे बिन अभी तक मैं झुलसता हूँ
छाँव देने फिर कोई आँचल नहीं आया
Pahli baar surf karte is kinare aan pahunchi jahan mamat aki chanv bhi hasil hui aur Uski anch bhi.
Shabdon ki bunavat v kasaavat bakhoobhi shabdon ke tewar abhivyakt kar rahi hai.
Yoon tarasha hai unko Shilpi ne
Jaan si pad gayi shilaaooN mein
Daad ke saath
"खूब गरजे थे मगर वे फिर नहीं बरसे
लौट कर बस्ती में इक बादल नहीं आया"
भैया शानदार ग़ज़ल... सभी शेर नज़रों में ठहर जाते हैं...
सादर आभार...
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