पिता : दो उदास कविताएँ
>> Friday, March 4, 2011
(१)
यह बरगद अब बूढ़ा हो गया है
झर रही है इसकी पत्तियाँ
उखड़ती जा रही है जड़ें
पहले जैसी सघन छाँव भी
नहीं मिलती इसके नीचे
मगर बरगद फिर भी बरगद है
छाँव के जितने भी टुकडे मिलते हैं
वे अनेक ताड़ वृक्षों से बेहतर हैयह बरगद अब बूढ़ा हो गया है
झर रही है इसकी पत्तियाँ
उखड़ती जा रही है जड़ें
पहले जैसी सघन छाँव भी
नहीं मिलती इसके नीचे
मगर बरगद फिर भी बरगद है
छाँव के जितने भी टुकडे मिलते हैं
आज भी चहचहाती हैं चिड़ियाएँ
इसमे बैठ कर
और गुलज़ार रहता है बरगद
लेकिन अब बूढ़ा हो गया है ये पेड़
कांपता है इसका पूरा जिस्म
डरता हूँ कहीं उखड न जाये
तेज हवा-पानी में
वीरान न हो जाये इसका आबाद चबूतरा
बरगद का होना
पर्यावरण के लिए कितना ज़रूरी है
पिता को देखता हूँ
और डरता हूँ
कि कब तक रहेगी यह छाँव
कि कब तक सर पर रहेगा स्नेहिल हाथ
एक दिन सबको नष्ट होना है
फिर भी चाहता है मन
अपने जीते-जी बने रहें
माता-पिता, भाई-बहिन
और यार-दोस्त
खडा रहे बरगद
देता रहे बस सबको छाँव
सबसे पहले जाऊं तो
मैं ही जाऊं अपने गाँव
(२)
पिता धीरे-धीरे कमजोर हो रहे हैं
जैसे पुराने घर की दीवारें
छज्जे और किवाड़
रह-रह कर
हांफते हैं पिता
इसमे बैठ कर
और गुलज़ार रहता है बरगद
लेकिन अब बूढ़ा हो गया है ये पेड़
कांपता है इसका पूरा जिस्म
डरता हूँ कहीं उखड न जाये
तेज हवा-पानी में
वीरान न हो जाये इसका आबाद चबूतरा
बरगद का होना
पर्यावरण के लिए कितना ज़रूरी है
पिता को देखता हूँ
और डरता हूँ
कि कब तक रहेगी यह छाँव
कि कब तक सर पर रहेगा स्नेहिल हाथ
एक दिन सबको नष्ट होना है
फिर भी चाहता है मन
अपने जीते-जी बने रहें
माता-पिता, भाई-बहिन
और यार-दोस्त
खडा रहे बरगद
देता रहे बस सबको छाँव
सबसे पहले जाऊं तो
मैं ही जाऊं अपने गाँव
(२)
पिता धीरे-धीरे कमजोर हो रहे हैं
जैसे पुराने घर की दीवारें
छज्जे और किवाड़
एक तरफ की करता हूँ मरम्मत
तो दूसरी तरफ का पलस्तर उखड जाता हैरह-रह कर
हांफते हैं पिता
विंहसता है महाकाल
और मेरा दम फूलने लगता है.चलते हैं लड़खड़ाते हुए कदम
जो कभी थाम लिया करते थे मुझे
जब कभी गिर पड़ता था बचपन में
देखता हूँ बूढ़ी काया को गौर से
और सिहर उठाता हूँ
बहने लगते हैं आंसू
भविष्य की कल्पना करके
इन्हीं हाथों ने संवारा है मुझे
गढ़ा है मेरा वर्त्तमान
अब इन्हीं हाथों को थामता हूँ मैं
उन हाथों की कम्पन डराती है
रुलाती है मुझे
ओ काल
तुम बड़े क्रूर हो
सुना तो है तुम्हारे बारे में
अब कर रहा हूँ महसूस
तुम किसी को नहीं छोड़ते
पहले छीना मेरा भाई
फिर माँ
अब क्या पिता पर है नज़र...?
लेकिन मैं भी हूँ जिद्दी अपने पिता की तरह
देखता हूँ कैसे ले जाते हो पिता को इस बार?
भाई और माँ को भी तुम कहाँ ले जा सके?
भाई बहता है हवाओं की तरह ज़ेहन में
माँ बहती है नदी बन कर भीतर ही भीतर
पिता भी रहेंगे पीपल की तरह
आत्मा के आँगन में
जैसे रहते हैं अभी.
धीरे-धीरे कमजोर होते जा रहे पिता
और उनसे ज्यादा कमजोर होता जा रहा हूँ मैं
यह जानते हुए भी, कि सब इसीलिये आते हैं,
कि एक दिन लौट कर चले जाना है
सबको अपने अंतिम ठिकाने की ओर.
12 टिप्पणियाँ:
यक्ष प्रश्न की तरह शाश्वत.
शास्वत प्रश्न...बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति..
पिता पर दोनों कविताएं अत्यंत मार्मिक रचना , बधाई।
दोनों कवितायेँ भावपूर्ण ......
गिरीश जी ,
दोनों कवितायें बहुत भावपूर्ण हैं .
बहुत ही सुंदर तरीके से आपने बरगद और पिता को जोड़ा है .
सब चलाचली का मेला है ,
जानते हैं सब ...
फिर भी अपनों के धीरे -धीरे खोने का दुःख बहुत सालता है ...
पिता वृक्ष के समान ही तो होता है जिसकी छाया में हम निश्चिंत रहते हैं ...
भावविभोर करती रचना !
man bojhil kar gayee aapki donon kavita.atyant hi bhawpoorn.
"... यह जानते हुए भी, कि सब इसीलिये आते हैं,
कि एक दिन लौट कर चले जाना है
सबको अपने अंतिम ठिकाने की ओर."
आपकी ये पंक्तियाँ आस्ट्रेलियाई कवि पैडी मार्टिन जी की याद दिला गयीं. उन्होंने भी लिखा है-
माली हैं आप
शब्दों के
वे बीज हैं
आत्मा के गीतों के
मैं आया हूँ
आपके शब्दों का
पान करने
उद्धार करने
अपने इस शरीर का
और करने अनुप्राणित
अपनी आत्मा को
इससे पहले कि
मैं प्रवेश करूँ
नये दिवस में
अगली यात्रा के लिये
बधाई स्वीकारें
हम सब पर पिता का प्यार बिलक्ल बरगद की छाया के साम ही होता हे, बहुत मार्मिक रचना धन्यवाद
दोनों कविताएं अत्यंत मार्मिक ,शब्द नहीं हैं कहने के लिए .....
दोनों कवितायेँ पढ़कर शब्द विहीन हूँ...
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति के लिए मुझ अकिंचन की ओर से बधाई एवं आभार स्वीकार करें|
भावुकता हमेशा निशब्द होती है....
मौन ही सब कुछ व्यक्त करता है...
जनता हूँ आप मौन को बेहतर पढ़ सकते हैं...
सादर प्रणाम आपको और आपकी दोनों रचनाओं को...
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