''सद्भावना दर्पण'

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ग़ज़ल / दिल में हो गर प्यार तो कोई क्यों हमको अनजान लगे

>> Monday, May 16, 2011

पहली बार मिले हैं लेकिन बरसों की पहचान लगे
दिल में हो गर प्यार तो कोई क्यों हमको अनजान लगे

तुम आए तो इस जीवन में फिर बहार-सी आई है
उजड़ा-उजड़ा गुलशन मेरा हरा-भरा उदयान लगे

अगर प्यार-करुणा ना होगी केवल हो खुदगर्जी तो
कैसा भी हो ज्ञान मुझे वह ज्ञान नहीं अज्ञान लगे

रोजाना जो दुखीजनों की सेवा करता रहता है
सच बोलूँ तो शख्स मुझे वो धरती का भगवान् लगे

जहां न कोई आए-जाए पाबंदी हो, बंदिश हो
आलीशान भले हो कितना घर वो कब्रिस्तान लगे

जहां कद्र ना हो प्रतिभा की चापलूस दरबारी हों
वहाँ अदब के ''डान'' मिलेंगे और सभा शमशान लगे

अगर हौसला है भीतर तो चिंता काहे की पंकज 
हर मुश्किल हो चाहे जितनी हमको तो आसान लगे

14 टिप्पणियाँ:

DR. ANWER JAMAL May 16, 2011 at 8:19 AM  

आपकी पोस्ट पढ़ी है आज पहली बार लेकिन
परिचित पुराने लगे, नहीं बिल्कुल अन्जान लगे

उम्दा रचना के लिए शुक्रिया.

http://www.mushayera.blogspot.com/

राज भाटिय़ा May 16, 2011 at 10:51 AM  

अगर हौसला है भीतर तो चिंता काहे की पंकज
हर मुश्किल हो चाहे जितनी हमको तो आसान लगे
बहुत सुंदर रचना, ऊपर लिखी पक्तियां मेरे दिल की आवाज लगती हे

Udan Tashtari May 16, 2011 at 6:44 PM  

अगर हौसला है भीतर तो चिंता काहे की पंकज
हर मुश्किल हो चाहे जितनी हमको तो आसान लगे


क्या बात है, बहुत खूब!!!

रजनीश तिवारी May 16, 2011 at 8:06 PM  

पहली बार मिले हैं लेकिन बरसों की पहचान लगे
दिल में हो गर प्यार तो कोई क्यों हमको अनजान लगे
हर लाइन बहुत बढ़िया है
धन्यवाद ...

Unknown May 16, 2011 at 10:03 PM  

जहां कद्र ना हो प्रतिभा की चापलूस दरबारी हों
वहाँ अदब के ''डान'' मिलेंगे और सभा शमशान लगे.

बहुत बढ़िया, बहुत सुंदर रचना

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') May 17, 2011 at 1:03 AM  

वाह भईया.... आपको पढ़ना अलग ही अनुभूति है..... सहज, सरल... सार्थक...

“जब भटके मन आ जाता हूँ, सादभावना की छांवों में,
पंकज की हर इक रचना ही, शिक्षा की खलिहान लगे”

सादर प्रणाम....

सुनील गज्जाणी May 17, 2011 at 2:10 AM  

रोजाना जो दुखीजनों की सेवा करता रहता है
सच बोलूँ तो शख्स मुझे वो धरती का भगवान् लगे
ye sher aap ki nazar kartaa hua , prnam kartaa hoo .vaakai insaaniyat yahi hai .
baaki sher bhi umdaa hai .
badhai , sadhuwad
saadar

महेन्‍द्र वर्मा May 17, 2011 at 8:32 AM  

अगर प्यार-करुणा ना होगी केवल हो खुदगर्जी तो
कैसा भी हो ज्ञान मुझे वह ज्ञान नहीं अज्ञान लगे

जहां स्वार्थ है वहां तो केवल अज्ञान ही होगा।
प्रेरक मिसरे, शानदार ग़ज़ल।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) May 17, 2011 at 9:44 AM  

वाह पंकज जी,क्या बात है
अगर प्यार-करुणा ना होगी केवल हो खुदगर्जी तो
कैसा भी हो ज्ञान मुझे वह ज्ञान नहीं अज्ञान लगे.
आपकी ग़ज़ल ने मेरे दिल में कुछ तरह की हलचल मचा दी है......
खौफ न पैदा कर पाओगे,बम तोपों तलवारों से
हम जैसों को लूटने खातिर,नन्ही सी मुस्कान लगे.

विनोद कुमार पांडेय May 18, 2011 at 9:33 AM  

अगर प्यार-करुणा ना होगी केवल हो खुदगर्जी तो
कैसा भी हो ज्ञान मुझे वह ज्ञान नहीं अज्ञान लगे

शानदार ग़ज़ल चाचा जी...बड़े ही सुंदर भाव पिरोती हुई एक सार्थक संदेश देती है यह ग़ज़ल....प्रणाम स्वीकारें

डॉ.मीनाक्षी स्वामी Meenakshi Swami May 18, 2011 at 12:43 PM  

"अगर हौसला है भीतर तो चिंता काहे की पंकज
हर मुश्किल हो चाहे जितनी हमको तो आसान लगे"

क्या बात है ! बहुत खूब !

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ January 1, 2012 at 2:30 AM  

आप तथा आपके परिवार के लिए नववर्ष की हार्दिक मंगल कामनाएं
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 02-01-2012 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

virendra sharma January 2, 2012 at 4:22 AM  

जहां न कोई आए-जाए पाबंदी हो, बंदिश हो
आलीशान भले हो कितना घर वो कब्रिस्तान लगे

जहां कद्र ना हो प्रतिभा की चापलूस दरबारी हों
वहाँ अदब के ''डान'' मिलेंगे और सभा शमशान लगे
क्या बात है .बहुत खूब .नव वर्ष मुबारक हो .

Naveen Mani Tripathi January 2, 2012 at 8:07 AM  

VAH HR AK SHER LAJABAB ... BADHAI .

सुनिए गिरीश पंकज को

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