नई ग़ज़ल/ डरे हुए हैं दुनिया से नहीं निकलते घर से लोग
>> Thursday, June 23, 2011
बहुत दिन बाद आया. नेट ख़राब था. सड़क चौडीकरण के चक्कर में मज़दूरों ने केबल ही काट दिया. मजबूरी में छटपटाते रहे. कल केबल जुडा तो राहत मिली. खैर, एक नई ग़ज़ल पेश है. पता नहीं कैसी बनी है. लेकिन मन की अभिव्यक्ति है.
टूटे-फूटे उजड़े लोग
ऐसे भी जी लेते लोग
दिल अपनों का जो तोड़े
पापी हमको लगते लोग
खुद्दारी अब लगे बुरी
ऐसा भी कुछ कहते लोग
खुदगर्जी में अंधे हैं
कहने को थे अपने लोग
डरे हुए हैं दुनिया से
नहीं निकलते घर से लोग
हर ख्वाहिश से ऊपर हैं
अपनी धुन में चलते लोग
पंकज ज़िंदा पार लगें
मुर्दे हैं तो बहते लोग
12 टिप्पणियाँ:
हर ख्वाहिश से ऊपर हैं
अपनी धुन में चलते लोग
अपने धुन में चलने वालों के पास न कोई इच्छा होती है और न अनिच्छा।
गज़ब का शेर।
लोगों की सोच के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती सुंदर ग़ज़ल।
बहुत दिनों से आपका इंतज़ार था।
भाई साहब,नेट कटने की छटपटहट ने आपसे एक उम्दा गजल कहा दी।
दुष्यंत कुमार कह गए हैं
गम-ए-जांना गम-ए-दौरां गम-ए-हस्ती गम-ए-ईश्क
जब गम ही गम दिल में भरा हो तो गजल होती है।
सुंदर गजल के लिए आभार
सबकी अपनी अपनी सोंच , खुबसूरत गज़ल मुबारक हो
जय हो महाराज … बेहद उम्दा रचना !
दिल अपनों का जो तोड़े
पापी हमको लगते लोग
शब्द-शब्द सत्य....
सुन्दर ग़ज़ल...
आदरणीय गिरीश पंकज भाई जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
आपकी बहुत याद आ रही थी , यद्यपि मैं स्वयं भी कम ही सक्रिय रह पा रहा हूं …
अच्छी रचना के लिए आभार
खुदगर्जी में अंधे हैं
कहने को हैं अपने लोग
बहुत शानदार ! आप हमेशा मानवीयता के समर्थन में आवाज़ उठाते हैं …
साधुवाद !
हार्दिक शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह! बेहतरीन गज़ल!!!
"टूटे-फूटे उजड़े लोग
ऐसे भी जी लेते लोग"
आपकी ग़ज़ल हमेशा जानी पहचानी सी लगती है....
एकदम अपने आसपास की....
बहुत सुन्दर.....
सादर प्रणाम....
खुद्दारी अब लगे बुरी
ऐसा भी कुछ कहते लोग
खुदगर्जी में अंधे हैं
कहने को थे अपने लोग..
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! हर एक शेर लाजवाब है! उम्दा ग़ज़ल!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
हर शेर यथार्थ के भावों से तराशे हैं आपने !
एक बार फिर से बेहतरीन गजल। वैसे भी आपको पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है।
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