नई ग़ज़ल/ वे इतने बिंदास हो गए वैचारिक संडास हो गए ....................
>> Friday, July 8, 2011
यह समय कई बार विचित्र किन्तु सत्य जैसा लगता है. फिल्मो में गालियों का इस्तेमाल हो रहा है, यथार्थ के नाम पर साहित्य में भी गालिया और अश्लीलता खुलेआम नज़र आती है. समलैंगिकता को प्रगतिशील आचरण समझा जा रहा है. हर वर्जित चीज़ों को लोग प्रगतिशील बन कर जायज़ ठहराने पर तुले हैं. इस पर कुछ अलग से लिखूंगा. फिलहाल कुछ शेर अभी बने हैं, इसी मानसिकता पर, सो, प्रस्तुत हैं.
वे इतने बिंदास हो गए
वैचारिक संडास हो गए
प्रोग्रेसिव बनने की खातिर
फ़ौरन बिना लिबास हो गए
गाली देना कला बन गयी
भजन यहाँ बकवास हो गए
सबको दो कौड़ी का समझा
खुद ही गुम इतिहास हो गए
सुविधाओं के चक्कर में कुछ
सज्जन भी बदमाश हो गए
भ्रष्ट यहाँ नायक दिखते हैं
अच्छे सभी उदास हो गए
सच-सच बोल दिया तो उनके
पैरों की हम फास हो गए
बोल न पाए बातें सच्ची
क्या वे ज़िंदा लाश हो गए
जाने का ये नाम न लेते
दर्द हमारे ख़ास हो गए
पढ़-लिख कर कुछ फेल हो गए
बिना पढ़े कुछ पास हो गए
14 टिप्पणियाँ:
प्रोग्रेसिव बनने कई खातिर
फ़ौरन बिना लिबास हो गए
गाली देना कला बन गयी
भजन यहाँ बकवास हो गए
आज कल यही सब रह गया है ..सटीक लिखा है ...
प्रोग्रेसिव बनने कई खातिर
फ़ौरन बिना लिबास हो गए
गाली देना कला बन गयी
भजन यहाँ बकवास हो गए
आज कल यही सब रह गया है ..सटीक लिखा है ...
वर्तमान परिवेश पर प्राभावशाली अभिव्यक्ति.
इसे भी जोड़ लीजिये
सज्जन तो बस आम ही रहते
और बदनाम तो खास हो गए |
जबरदस्त प्रहार मुबारक हो .....
सबको दो कौड़ी का समझा
खुद ही गुम इतिहास हो गए
सही कहा आपने...अद्भुत रचना.
बेहद प्रभावशाली,
आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सटीक व्यंग्य है आज की हकीकत पर ....
हार्दिक शुभकामनायें आपको !
अद्भुत प्रभावशाली रचना....
संगीताजी, शिखाजी, सतीश भाई, महेंद्र भाई, सुनील भाई, वर्षाजी, एवं विवेक जैन जी को धन्यवाद.
करारा व्यंग्य है !! एक दम सच्ची पोस्ट!!
हमज़बान की नयी पोस्ट http://hamzabaan.blogspot.com/2011/07/blog-post_09.html में आदमखोर सामंत! की कथा ज़रूर पढ़ें
पंकज जी,
ये फटाफट जेनेरेशन है, यहाँ वक़्त नहीं है किसी के पास, न सोचने के लिए- न समझने के लिए, जो फटाफट बिक जाये वहीं माल बनाया जाता है बाद में सारा दिमाग बेचने पर लगाया जाता है, इनका फ़ॉर्मूला है कि मिटटी भी बिकती है बेचनेवाला चाहिए. एक बार माल बिक गया तो फिर तुम कहाँ - हम कहाँ. यही वजह है कि आज गाने आते हैं दो - चार हफ्ते चारो तरफ ढिंक-चिका ढिंक-चिका हो जाता है. अच्छी-खासी कमाई हो जाती है, बाद में चार - छ: महीने बाद लोगों से उस गाने के बारे में पूछा जाय तो उन्हें दिमाग पर जोर डालना पड़ता है. जबकि पहले के गाने लोग अक्सर गाते-गुनगुनाते मिल जायेंगे. जाने दीजिये ये सब बनिए हैं इन्हें अपना माल बेचने दीजिये, हमें तो भाई जो पसंद आएगा वो खरीदेंगे. हम अपना दिमाग क्यों ख़राब करें. बहरहाल आपकी इस ग़ज़ल के बहाने एक अच्छी चर्चा हो गयी. अच्छा लिखा है आपने.
प्रोग्रेसिव बनने की खातिर
फ़ौरन बिना लिबास हो गए
जबरदस्त है भईया....
सादर प्रणाम....
वाह, बहुत खूब...
शानदार कटाक्ष....
करारा व्यंग्य ..सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति, बधाई
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